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गिराए ताकि गंदगी न फैले। इस निर्देश में सभ्यता एवं शिष्ठता की झलक परिलक्षित होती है। गृहस्थ समाज भी इस निर्देश का पालन करे तो गलियों में गंदगी से होने वाले प्रदूषण से बचा जा सकता है।
भिक्षाचरी की परिसम्पन्नता के बाद भोजन विधि को बताते हुए कहा गया है कि सामान्यतः भिक्षु गोचराग्र से वापस आकर आहार उपाश्रय में ही ग्रहण करे। यदि वह भिक्षार्थ दूसरे गांव में गया हुआ हो और कारणवश वहीं आहार करना पड़े तो वहां पर स्थित साधुओं के पास जाकर आहार करे। यदि अन्यत्र भोजन करना पड़े तो जहां कहीं भिखारियों की तरह न खाए, किन्तु शून्यगृह या कोष्ठक में बैठकर विधिपूर्वक खाए ।
दर्शन दिग्दर्शन
आहार में ग्रास के साथ कंकड़, कंटक आदि आ जाएं तो उन्हें सीधा मुंह से न थूके किन्तु आसन से उठकर कंकड़ आदि को हाथ में लेकर एकान्त स्थान में धीरे से रखे। उपाश्रय में आकर आहार करने वाले मुमि के लिए भी अत्यन्त आकर्षक एवं मनोज्ञ विधि बतलाई गई है। मुनि उपाश्रय में प्रविष्ट होते ही पाद प्रमार्जन करे और ‘निसीहिया' शब्द का उच्चारण करे। यह मुनि के कार्यनिवृत्त हो, स्थान में प्रवेश का सूचक है।
गुरु के समक्ष जाते ही बद्धांजलि हो ' णमो खमासमणाणं' कहकर गुरु का अभिवादन करे। यह विधि भी व्यवहार के अन्तर्गत ही है । इसका समावेश विनय के सात भेदों में से लोकोपचार विनय में होता है। लोकोपचार और व्यवहार एक ही तात्पर्यार्थ को बताने वाले शब्द हैं । जिस क्रम से तथा जहां से भिक्षा ग्रहण की हो, गुरु के समक्ष उसकी आलोचना करे। वह भी गुरु की अनुज्ञा प्राप्त कर ।
आहार विधि की अपेक्षा से मुनि दो प्रकार के बताए गए हैं - प्रथम मंडली के साथ आहार करने वाले और दूसरे अकेले आहार करने वाले । प्रथम प्रकार के मुनि जब तक मंडली के सब मुनि न आ जाएं तब तक स्वाध्याय करें। आहार लेकर मैं लाया हूं, इस आहार पर मेरा ही अधिकार है, ऐसा सोचकर अकेला ही खाने के लिए न बैठ जाए ।
अकेले आहार करने वाले मुनि भी भिक्षा लाकर कुछ समय विश्राम करे । विश्राम के समय में स्थिरता से चिन्तन करे । फिर आचार्य से निवेदन करे - भगवान ! इस आहार से यथेच्छ आहार आप स्वीकार कर मुझे कृतार्थ करें। यदि आचार्य न लें तो चह निवेदन करे - भन्ते ! यह भोजन आप अतिथि, ग्लान, शैक्ष, तपस्वी, बाल तथा वृद्ध - इनमें
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