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पथिक उसके बिना सीधा पर्वतारोहण कर सके, यह संभव नहीं । निश्चय फलगत रस है और व्यवहार है उसकी उत्पत्ति, वृद्धि और संरक्षण का हेतुभूत ऊपर का छिलका। निश्चय रेउ है और व्यवहार गमन-साधक पटरी ।
साध्यावस्था में हम निश्चयमय बन जाते हैं पर साधनाकाल में निश्चय और व्यवहार घुले-मिले रहते हैं । यह निर्विवाद सत्य है कि लक्ष्य प्राप्ति के बाद जीवन की पूर्णता व्यवहार हमारे लिए अनुपयोगी है। किन्तु जीवन की अपूर्णता में वह उतना ही उपयोगी है । वहा हम व्यवहार का त्याग कर नहीं चल सकते।
दर्शन दिग्दर्शन
व्यवहार का अर्थ छलना या प्रवंचना नहीं है । उसका अर्थ है यथार्थ को भी बुद्धि, विवेक तथा कला के साथ प्रस्तुत करना । व्यवहार जीवन का कलात्मक पक्ष है । दूसरे शब्दों में कलात्मक जीवन पद्धति का नाम ही व्यवहार है । सत्य और शिव को जैसे सौन्दर्य की अपेक्षा है वैसे ही यथार्थ क्रिया भी कला के बिना अधूरापन लिए रहती है । उसकी पूर्ति व्यवहार करता है । व्यक्ति जहां अकेला होता है, वहां व्यवहार-पथ के अनुगमन की विशेष आवश्यकता नहीं रहती। पर जहां समाज होता है, वहां परस्परता होती है । जहां परस्परता होती है, वहां व्यवहार अपेक्षित होता है ।
व्यवहार पक्ष की उपदेयता को अभिव्यक्त करते हुए कवि ने कितना सुन्दर लिखा
Jain Education International 2010_03
काव्यं करोतु परिजल्पतइ संस्कृतं वा, सर्वाः कलाः समधिगच्छतु वा यथेच्छ । लोकस्थितिं यदि न वेत्ति यथामइरूपाम, सर्वस्य मूर्खनिकरस्य स चक्रवर्ती ।।
प्रकाण्ड पाण्डित्य प्राप्त व्यक्ति भी यदि लोक व्यवहार से अनभिज्ञ है तो वह मूर्ख चक्रवर्ती की उपाधि से विभूषित होता है । 'नद्यपि शुद्धं लोकविरूद्धं नाचरणीयं नाचरणीयम' - इस उक्ति से लोक व्यवहार को निश्चय से भी अधिक महत्त्व प्राप्त है । इसीलिए तो यह निर्देश दिया गया है कि जिस कार्य को अपनी दृष्ठि शुद्ध मानती है, वह कार्य यदि लोक विरूद्ध है तो उसका आचरण मत करो। व्यवहार कुशल व्यक्ति जहां पग-पग पर अप्रत्याशित सफलता प्राप्त करता है, वहां व्यवहार से अनभिज्ञ रहने वाले व्यक्ति को कदम-कदम मर असफलता का मुंह देखना पड़ता है। विद्वान लेखक की यह पंक्ति कितनी
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