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जीवनवृत
__ पं. सुखलालजी संघवी जब कलकता आते थे तब हमारे ननिहाल में धार्मिक गोष्ठी हुआ करती थी। उसमें पिताजी, हीराकुमारी बोथरा और नथमलजी टांटिया सम्मिलित होते थे। पिताजी प्रायः रोज ही महासभा जाते थे। वहां पर भी पढ़ने और लिखने का काम करते थे। एक समय किसी विदेशी ने जो जैन-दर्शन में शोध कर रहे थे पिताजी से कहा कि जैन दर्शन में कोई शब्दकोष (डिक्सनरी) नहीं है। एक विषय के लिए बहुत सी पुस्तकों को पढ़ना पड़ता है। तब पिताजी के मस्तिष्क में इस विषय में शोध करने का विचार आया । उन्होंने श्वेताम्बर व दिगम्बर सभी पंथों के मतों का शब्दकोष में उल्लेख किया है। जब इस विषय पर पिताजी काम कर रहे थे उसी समय ई. सन १६५७ में माताजी का छोटी उम्र में ही देहान्त हो गया। इधर गृहस्थी का भार और ज्ञान का लगाव दोनों को ही पिताजी पूरा समय नहीं दे पा रहे थे। तब धीरे-धीरे ये कार्य उन्होने घर पर ही करना
आरम्भ कर दिया। व्यापार को छोटे भाई दिलीपकुमार देखने लगे। इसी बीच पिताजी कई बार शिविर में भी शामिल हुए थे। वे आचार्यश्री और साधुवर्ग का श्रद्धा भक्ति से सम्मान करते थे। जब समय मिलता था और स्वास्थ्य साथ देता था तो दर्शन करने अवश्य जाते थे।
गण व गणपति में उनकी अटूट श्रद्धा थी। गणाधिपति तुलसी गणी के प्रति वर्ष दर्शन करते, जैन दर्शन संस्कृति पर विचार विनिमय करते।
___ भोक्ष मार्ग के तीन विषय सम्यग दर्शन ज्ञान चारित्र में दर्शन में तो उनकी अटूट श्रद्धा थी और ज्ञान में ही अपना जीवन समर्पित कर दिया। आज जो १००० किताबों की सूची तैयार है, उसे पूरा करने में ही उन्होंने अपना जीवन व्यतीत कर दिया। इस कार्य में उन्हें श्री श्रीचन्द चोरड़िया का बहुत बड़ा सहयोग मिला और आज भी उन्हीं के प्रयत्न से पिताजी की किताबें छप रही हैं। एक पण्डितजी आया करते थे जो संस्कृत से हिन्दी के अनुवाद में पिताजी को सहयोग प्रदान करते थे। पिताजी ने जैन धर्म से सम्बन्धित संस्कृत एवं प्राकृत की बहुत सारी किताबें देश-विदेश से मंगवाई। बड़ी-बड़ी पार्सलें आती थीं। डाकिये को बहुत तकलीफ होती थी इस कारण सरकार ने डोवर लेन में एक छोटा डाकखाना स्थापित किया।
पुत्री होकर पिता के बारे में लिखना बड़ा कठिन है। उनके सम्मुख हम बहुत अल्प ज्ञानी हैं। लिखने में कोई त्रुटि रह गयी हो या अतिशयोक्ति हो गई तो क्षमा करें।
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