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जीवनवत
के वक्त हमारा वक्त खूब गुजरा। जिस शाम ब्रिज नहीं खेलते, उस दिन या तो बाऊजी महासभा का काम करते या फिर मीटिंग।
- जीवन साथी के, बिना बच्चों को निबाहना, कितना मुश्किल होगा, नर्म मर्म में अनुभव किया होगा बाऊजी ने । पीछे के सालों में बाऊजी, तुलसीजी और अपने शोधकार्य में ही ज्यादा से ज्यादा वक्त गुजारने लगे थे। जीवन से क्लान्त होता है प्राणी, ज्ञान से शान्त हो सकता है प्राणी।
अन्त में यह कहना है कि संसारी जीवन के उतार-चढ़ाव से जूझती हुई मैं एक ऐसे मुकाम में पहुंची थी जहां में भिन्न-भिन्न हो रही थी। ऐसे ही कोमल व्याकुल क्षण में मैने बाऊजी से कहा बाऊजी मैं अगले जनम में भी तुम्हारी बेटी होके जन्मना चाहती हूं। बाऊजी ने मुझे बाहों में समेट लिया। मुझे इस जन्म का सहारा तो चाहिए था ही, मानों में उन्हें कहने से ही सब कुछ सरल हो जायेगा। विचार था कि बाऊजी को पकड़ें रहूंगी तो उनके साथ-साथ भोक्ष के मार्ग में भी चलती रहूंगी। जन्म जन्मांतर मंजिल तक।
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