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जीवनवत
पारस्परिक व्यवहार में उनका हृदय नवनीत जैसी कोमलता लिए हुए था।
भारतीय विद्या (इन्डोलोजी) के अन्तर्गत जैनोलोजी मेरा मुख्य विषय रहा है। अतएव कलकता आदि में श्री बांठियाजी के सम्पर्क में आने के अनेक अवसर मुझे मिले। मेरी विद्याव्यासंगिता पर वे बड़े प्रसन्न थे। बड़ा स्नेह तथा आदर देते थे। अनेक साहित्यिक एवं तात्विक विषयों पर चर्चाएं होतीं। उन मधुर क्षणों को मैं कभी भूल नहीं सकता। उनसे वार्तालाप करने में आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति होती।
श्री बांठियाजी ने जैन फिलॉसोफिकल सोसाइटी नामक संस्था की स्थापना कर अपने द्वारा रचित विपुल साहित्य तथा तत्सदृश इतर साहित्य के प्रकाशन का जो द्वार खोला, वह वास्तव में उनका अत्यन्त श्लाधनीय कार्य है। संस्था कार्यरत है, यह हर्ष का विषय है।
उन सौम्यचेता, सत्पुरूष, प्रखर प्रज्ञाशील मनीषी तथा निर्ग्रन्थ-प्रवचन (जिन-शासन) के महान सेवी विद्वान को शत शत श्रद्धांजलियां समर्पित करता हुआ मैं आत्मशान्ति का अनुभव करता हूं।
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