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जीवनवत
कामना अथवा आसक्ति न रखते हुए कर्तव्यभाव से अनवरत अपने कर्म में संलग्न रहता है, वह कर्मयोगी की भूमिका में होता है। सुस्थिर मनोदशा के साथ अपने गन्तव्य पथ पर आगे बढ़ता कर्मयोगी 'स्थितप्रज्ञ' की अवस्था प्राप्त कर लेता है। गीताकार ने बड़ें स्पष्ट शब्दों में कहा है - ‘स्थितप्रज्ञ बाहय दुःखो - प्रतिकूलताओं से दुःखित नहीं होता। सुखों की स्पृहा - आकांक्षा नहीं करता है। कामनाओं का परित्याग कर देता है। जो भी करता है, आत्म परितोष के लिए करता है। आत्मतुष्टि को ही वह अपने लिए सर्वोपरि उपलब्धि मानता है। वैसा पुरूष एक गृहस्थ के वेष में रहता हुआ भी सन्यासी से कम नहीं होता।
श्री बांठियाजी एक ऐसे ही कर्मयोगी थे, स्थितप्रज्ञ थे, गृहस्थ की भूमिका में अवस्थित होते हुए भी वे फलासक्ति, यशस्विता एवं कीर्ति से वे सर्वथा अलिप्त थे। भावात्मक भूमिका में एक निर्विकार संत थे।
प्रतिभा का वैशिष्ट, चाहे जो भी क्षेत्र लिया जाए, अपना चमत्कार दिखलाता ही है। श्री बांठियाजी ने अपने व्यावसायिक जीवन में भी, जो बहुत लम्बा नहीं रहा, अपनी बौद्धिक कुशाग्रता से सबको प्रभावित किया। उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश भाग विशेषतः अपने जीवन का समग्र उत्तरार्द्ध सारस्वताराधना एवं साहित्य-सर्जना में व्यतीत किया, जिसका अपना गौरवास्पद इतिहास है, जो सर्वथा अविस्मरणीय है। अपने साहित्यिक अभियान में उन्हें प्रखर तत्ववेत्ता श्री श्रीचन्दजी चोरड़िया जैसे समर्पित सहयोगी मिले, जो एक मणि-कांचन जैसा योग था। इसे में दोनों ही के लिए सदभाग्यास्पद मानता हूं। श्री चोरड़ियाजी से मेरा निकट का परिचय रहा है। वैशाली में हम साथ रहे है। वे निःसन्देह सरल, सात्विक, उदबुद्धचेता मनीषी हैं, साधक हैं । वस्तुतः इस कोटि के सहयोगी का प्राप्त होना बड़ा दुर्लभ है।
श्री बांठियाजी के इस पावन, उत्तम साहित्यिक कृत्य में जो अभिरूचिशील साथी जुड़े, उनमें मैं श्रीयुक्त केवलचन्दजी नाहटा का बड़े आदर के साथ उल्लेख करना चाहूंगा। श्री नाहटाजी एक लगनशील, कर्मठ कार्यकर्ता के रूप में समाज में सर्वत्र विश्रुत रहे है। उनका व्यक्तित्त्व, सौम्यता तथा स्नेहार्द्रता से ऐसा संपुटित है कि वे हर किसी को
+ श्री मदभगवदगीता, अध्याय २, श्लोक ५५-५६
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