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________________ અભિવાદન [७१ श्वेतांबरोंके महानगरमें रहते हुए भी उनके विशाल मंदिरोंके दर्शनका या उनके मुनिजनोंका सहजसाध्य परिचय पानेका भी कोई खास उत्साह नहीं था। स्वयं पूज्य पण्डितजी तो इस विषयमें उदासीन ही थे। फिर भी उनके मुंहसे किसी एक जैन साधुकी मैंने मनःपूत प्रसंशा सुनी हो तो वह मुनिराज श्री पुण्यविजयजी की! पूज्य पंण्डितजी और मुनिराजजीकी जब भेंट होती तब इन दों अनगारिकोंके धर्मवात्सल्यसे कोई भी व्यक्ति प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। उस प्रसंग पर मुनिराजजीका ‘मित्ति मे सव्वभूएसु' इस आर्ष वचनको मूर्तिमंत करानेवाला प्रसन्न व्यत्कित्व जो मैंने देखा है वह आज भी याद आता है। जैन सिद्धान्तमें मुनिजनोंके जो प्रशम, विरति आदि गुण गिनाए हैं, उन्हें मुनिराजजीके इस सुभग व्यक्तित्वमें देखकर मेरी सम्प्रदायबद्ध अनेक ग्रंथियां खुल गई ! बिना किसी उपदेशसे ही श्रमण समाजकी मौलिक एकताका मैं दर्शन कर पाया इसका श्रेय श्री मुनिराज पुण्यविजयजी को ही है। आजन्म ब्रह्मचारी रहकर, व्रतनियमोंसे बद्ध होकर श्रमणका जीवन बिताना तो महान् पुरुषार्थ है ही। लेकिन उस सीमित जीवनको समजोपयोगी और अन्ततः धर्मोपयोगी बनाना तो विरलोंको ही साध्य है। मुनिराजजीने अपने जीवनमें जो भण्डारोंका उद्धार किया है, आगमोंको प्रकाशित किया है वह तो कार्य जहाँ तक मेरा खयाल है और किसी भी व्यक्तिने -न तो बौद्धों मेंसे, न दिगम्बर जैनोंमेसे और न विशाल हिन्दु समाजके साधुजनोंमेसे-नहीं किया है। पुराने ग्रंथोंका संग्रह करना तो एक बडा रहस्यमय व्यवसाय है। पाश्चात्य देशोंमे म्यूझियममें तथा प्रसिद्ध लायब्ररीयोंमें जो ग्रंथ एकत्रित किये हैं उनके पीछे बडा रोमांचक इतिहास है। इसमें चोरी करनी पडी है, लांच खिलानी पड़ी है, जबर्दस्तीसे लूट भी की ई है। इस व्यवसायमें कई लोगोंने काफी धनका भी संग्रह कर लिया है। पूज्य मुनिराजकी यह बडी विशेषता है कि उन्होंने जैन भण्डारोंकों बडी कुशलतासे इस दुर्दशासे बचाया, लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर जैसी संस्थाओंको निर्माण करके उन ग्रन्थोंको प्रकाशमें लाया और अत्यन्त निःस्पृहभावसे योग्य व्यक्तियोंके मांगने पर मूलप्रतियां भी दिलवाई। सात वर्ष पहले में लन्दन विश्वविद्यालयसे छुट्टी लेकर भारत आया था तब उनसे वसुधारा धारणीकी तीन प्रतियां-जो अन्यत्र कहीं मिलती नही थीं-मैंने प्राप्त की थी। यह एक बौद्ध ग्रंथ है जो गुजरातके जैनोंमें प्रचलित है। मुनिराजजीने इस प्रकार अनेक अप्रकाशित हस्तलिखित ग्रंयोंको प्रकाशमें लाया है और अनेक विद्वानोंका संग्रह भी किया है । जैन परम्पराके अनुसार श्रुतकी प्रभावना करना यह तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धका निमित्त माना गया है। पूज्य मुनिराज पुण्यविजयजीमें इस गुणका जो प्रकर्ष देखा गया है वह अवश्य ही आगामी कालमें भी महान् कल्याण करनेवाला है ऐसा मेरा विश्वास है। उन्हें उत्तम आयु और आरोग्यकी प्राप्ति हो यही हमारी नम्र प्रार्थना है । મુનિ શ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજ : વિશુદ્ધ સેવાનિષ્ઠ શ્રમણજીવન છે. કેશવલાલ હિંમતરામ કામદાર, વડોદરા ॥ रहस्यं साधुनामनुपधि विशुद्धं विजयते ॥ उत्त२२॥भयरित (पति ) પરમ પૂજ્ય મહારાજ શ્રી પુણ્યવિજ્યજીના દીક્ષા મહોત્સવના પ્રસંગને સાઠ વર્ષો થયાં તેના Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012058
Book TitleGyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherSagar Gaccha Jain Upashray Vadodara
Publication Year1969
Total Pages610
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size15 MB
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