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________________ મહારાજા ખારવેલસિરિક શિલાલેખકી ૧૪ વી પક્તિ ice यहाँपर “कायनिसीदीयाय यापनावकेहि" अंशका जो अर्थ किया गया है वह ठीक है या नहीं ?, इस अर्थके लिए कुछ आधार है या नहीं ?, उक्त शिलालेखके अंशके साथ पूर्णतया या अंशतः तुलना की जाय ऐसे शास्त्रीय पाठ जैनग्रन्थों में पाये जाते हैं या नहीं? उक्त शीलालेखका सम्बन्ध दिगम्बर जैन सम्प्रदायसे है या श्वेताम्बर जैनसम्प्रदायसे है ? इत्यादि विषयोंका निर्णय करनेमें सुगमता होनेके लिये जैनग्रन्थोंके पाठ क्रमशः उद्धृत किये जाते हैं - श्वेताम्बर जैनसम्प्रदायके साधुगणको प्रतिदिन आवश्यक क्रियारूपमें आनेवाले' षड्विध आवश्यकसूत्र' के तीसरे · वन्दणय' (सं० वंदन) नामक आवश्यकसूत्रमें निम्न लिखित पाठ है-- इच्छामि खमासमणो ! वंदिउं जावणिज्जाए निसीहीयाए अणुजाणह मे मिउग्गहं निसीहि xxx जत्ता भे जवणिजं च भे.... मान्य आचार्य श्री जिनदासगणि महत्तरने और याकिनीमहत्तरासूनु श्री हरिभद्राचार्यने 'षड्विध आवश्यकसूत्र' की चूर्णी और टीकामें इस सूत्र पर अतिविस्तृत व्याख्या की है, जिसमेंसे उपयोगी अंश यहाँ पर उद्धृत किया जाता है - __ चूर्णी- "जावणिज्जाए निसीहियाए । यावणी यानामजा केणति पयोगेण कजसमत्था, जा पुण पयोगेण वि न समत्था सा अजावणीया, ताए जावणिजाए । काए ? निसीहियाए, निसीहि नाम सरीरगं वसही थंडिलं च भण्णति, जतो निसीहिता नाम आलयो वसही थंडिल च, सरीरं जीवस्स मालयो त्ति, तथा पडिसिद्धनिसेवणनियत्तस्स किरिया निसीहिया, ताए॥" -आवश्यक चूर्णी, उत्तरभाग, पत्र ४६ ॥ . . टीका-या प्रापणे, अस्य ज्यन्तस्य कर्त्तर्यनीयच् , यापयतीति यापनीया तया । विधु गत्याम् , अस्य निपूर्वस्य पनि निषेधनं निषेधः निषेधेन निर्वृत्ता नैषेधिकी, प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाद्वा 'नषेधिका' इत्युच्यते । x x x ‘यापनीयया' यथाशक्तियुक्तया 'नैषेधिक्या' प्राणातिपातादिनिवृत्तया तन्वा शरीरेणेत्यर्थः ॥ x x x यापनीयं चेन्द्रिय-नोइन्द्रियोपशमादिना प्रकारेण · भे' भवताम् ? शरीरमिति गम्यते ॥" ---- आवश्यक, हारिभद्री टीका, पत्र ५४६-४७॥ " इच्छामि खमासमणो ! वंदिउं जावणिज्जाए निसीहीयाए मत्थएण वंदामि " खमासमणसुत्तं ।। इन उद्धृत पाठोंमें " कायनिसीदीयाय यापञावकेहि " अंशसे पूर्णतया और अंशतः तुलना की जाय ऐसा दोनों प्रकारका उल्लेख है। १. आवस्सयं छविहं पण्णत्तं, तं जहा-सामाइय, चउवीसत्थओ, वंदणयं, पडिक्कमणं, काउस्सग्गो, पञ्चक्खाणं । मन्दोमुत्तं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012058
Book TitleGyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherSagar Gaccha Jain Upashray Vadodara
Publication Year1969
Total Pages610
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size15 MB
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