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________________ નન્દીકે પ્રણેતા તથા ચૂર્ણિકાર [८१ ___ "तेषामार्यसिंहानां स्थविराणां मधुमित्रा-ऽऽर्यस्कन्दिलाचार्यनामानौ द्वौ शिष्यावभूताम् । आर्यमधुमित्राणां शिष्या आर्यगन्धहस्तिनोऽतीवविद्वांसः प्रभावकाश्चाभवन् । तैश्च पूर्वधरस्थविगेत्तंसोमास्वातिवाचकरचिततत्त्वार्थोपरि अशीतिसहस्रश्लोकप्रमाणं महाभाष्यं रचितम् । एकादशाङ्गोपरि चाऽऽर्यस्कन्दिलस्थविराणामुपरोधतस्तैर्विवरणानि रचितानि । यदुक्तं तद्रचिताऽऽचाराङ्गविवरणान्ते यथा थेरस्स महुमित्तस्स सेहेहिं तिपुव्वनाणजुत्तेहिं । मुणिगणविवंदिएहिं ववगयरायाइदोसेहिं ॥१॥ बंभद्दीवियसाहामउडेहिं गंधह स्थिविबुहेहिं । विवरणमेयं रइयं दोसयवासेसु विक्कमओ ॥२॥ आचारागसूत्रके इस गंधहस्तिविवरणका उल्लेख आचार्य श्री शीलाङ्कने अपनी आचाराङ्गवृत्तिके उपोद्घातमें भी किया है। कुछ भी हो; जैन आगमोंके ऊपर व्याख्या लिखनेकी प्रणाली अधिक प्राचीन है। ४. उत्तराध्ययनसूत्रचूर्णिके प्रणेता कौटिकगणीय, वज्रशाखीय एवं वाणिजकुलीय स्थविर गोपालिक महत्तरके शिष्य थे । इस चूर्णिकारने चूर्णिमें अपने नामका निर्देश नहीं किया है। इनके निश्चित समयका पता लगाना मुश्किल है । तथापि इस चूर्णिमें विशेषावश्यकभाष्यकी स्वोपज्ञ टीकाका सन्दर्भ उल्लिखित होनेके कारण इसकी रचना जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणके स्वर्गवासके बादकी है। विशेषावश्यक भाष्यको स्वोपज्ञ टीका श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमणको अन्तिम रचना है। छठे गणधरवाद तक इस टीकाका निर्माण होने पर आपका देहान्त हो जानेके कारण बादके समग्र ग्रंथकी टीकाको श्रीकोट्टार्यवादी गणी महत्तरने पूर्ण की है। ५. जीतकल्पबृहचूर्णिके प्रणेता श्रीसिद्धसेनगणी हैं । इस चूर्णांके अन्तमें आपने सिर्फ अपने नामके अतिरिक्त और कोई उल्लेख नहीं किया है। श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमणकृत ग्रन्थके ऊपर यह चूर्णी होनेके कारण इसकी रचना श्रीजिनभद्रगणिके बादकी स्वयंसिद्ध है। इस चूर्णीको टिप्पनककार श्रीश्रीचन्द्रसूरिने बृहचूर्णीनामसे दर्शाई हैनत्वा श्रीमन्महावीर परोपकृतिहेतवे । जीतकल्पबृहचूर्णाख्या काचित्प्रकाश्यते ॥१॥ उपरिनिर्दिष्ट सात चूर्णीयोंके अतिरिक्त तेरह चूर्णीयों के रचयिताके नामका पता नहीं मिलता है। तथापि इन चूर्णीयोंके अवलोकनसे जो हकीकत ध्यानमें आई है इसका यहाँ उल्लेख कर देता हूँ । यद्यपि आचाराङ्गचूर्णी और सूत्रकृताङ्गचूीके रचयिताओंके नामका पता नहीं मिला है तो भी भाचाराङ्गचूर्णीमें चूर्णीकारने पंद्रह स्थान पर नागार्जुनीय वाचनाका उल्लेख किया है, उनमेंसे सात स्थान पर "भदंतनागज्जुणिया" इस प्रकार बहुमानदर्शक 'भदन्त' शब्दका प्रयोग किया है, इससे अनुमान होता है कि ये चूर्णीकार नागार्जुनसन्तानीय कोई स्थविर होने चाहिए। सूत्रकृताङ्गचूर्णीमें जहाँ जहाँ नागार्जुनीय वाचनाका उल्लेख चूर्णीकारने किया है वहाँ सामान्यतया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012058
Book TitleGyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherSagar Gaccha Jain Upashray Vadodara
Publication Year1969
Total Pages610
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size15 MB
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