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________________ જૈન આગમધર ઔર પ્રાકૃત વાલ્મય [५3 सिद्धसेनाचार्यादि प्रबंध आदि अनेक छोटी-मोटी प्राकृत रचनाएं प्राप्त होती हैं. ये स्वतन्त्र साधुचरित स्त्री-पुरुषके कथाचरित होने पर भी इनमें प्रसंग-प्रसंग पर अवान्तर कथाएं काफी प्रमाणमें आती हैं. इन महाकाय कथा-चरितोंकी तरह संक्षिप्त कथाचरितके संग्रहरूप महाकाय कथाकोशोंकी रचना भी बहुत हुई है. वे रचनाएं भद्रेश्वरसूरिकी कहावली, जिनेश्वरसूरिका कथाकोश, नेमिचन्द्र-आम्रदेवसूरिका आख्यानकमणिकोश, धर्मघोषका ऋषिमण्डलप्रकरण, भरतेश्वरबाहुबलिवृत्ति आदि हैं. अपभ्रंशमें श्वेताम्बर जैन संप्रदायमें महाकवि धनपालका सत्यपुरमहावीरस्तोत्र, धाहिलका पउमसिरिचरिउ, जिनप्रभसूरिका वइरसामिचरिउ आदि छोटी-छोटी रचनाएं बहुत पाई जाती हैं, किन्तु बड़ी रचनाएं श्री सिद्धसेनसूरि अपरनाम साधारण कविकृत विलासवई कहा [अं० ३६२०, रचना सं० ११२३] और हरिभद्रसूरिका नेमिनाहचरिउ [ग्रंथाग्र ८०३२, रचना सं० १२१६] ये दो ही देखनेमें आती हैं. आचार्य श्री हेमचन्द्रने सिद्धहेमचन्द्र व्याकरण-अष्टमाध्यायमें प्राकृतादि भाषाओंके साथ अपभ्रंश भाषाओंको शामिल किया है, फिर भी श्वेताम्बर सम्प्रदायमें अपभ्रंश भाषाका प्रयोग विशेष नहीं हुआ है. सामान्यतया श्वेताम्बर आचार्योंने अपने ग्रन्थों में सुभाषित और प्रसंगागत कथाओंके लिए इस भाषाका उपयोग किया है. मूलशुद्धिप्रकरणवृत्ति, भवभावनाप्रकरणवृत्ति, आख्यानकमणिकोशवृत्ति, उपदेशमाला दोघटिवृत्ति, कुमारपालप्रतिबोध आदिमें अपभ्रंश कथाएं आती हैं, जो दो सौ-चार सौ श्लोकसे अधिक परिमाण वाली नहीं होती हैं. दिगम्बर जैन सम्प्रदायमें इससे विपरीत बात है. दिगम्बर आचार्योंने धर्मकथाओंके लिए प्राकृत-मागधीके स्थानमें अपभ्रंश भाषाका ही विशेष रूपसे उपयोग किया है. दिगम्बरसम्प्रदायमें शास्त्रीय ग्रन्थोंके लिए प्राचीन आचार्योंने शौरसेनी भाषाका बहुत उपयोग किया है. उन्होंने अतिमहाकाय माने जाएँ ऐसे धवल, जयधवल, महाधवल शास्त्रोंकी रचना की है. समयसार, पंचास्तिकाय आदि सैकड़ों शास्त्र भी शौरसेनी में लिखे गये हैं. जैनस्तुति स्तोत्रादि ___ जैनाचार्योंने स्तुति-स्तोत्रादि साहित्य काफी लिखा है. फिर भी प्रमाणकी दृष्टि से देखा जाय तो प्राकृत भाषामें वह बहुत ही कम है. आचार्य पादलिप्त, आचार्य अभयदेव, देवभद्रसूरि, जिनेश्वरसूरि, जिनवल्लभ आदिका समग्र स्तुतिस्तोत्रादि साहित्य एकत्र किया जाय तो, मेरा अनुमान है कि, वह दो-चार हजार श्लोकोंसे अधिक नहीं होगा. इन स्तोत्रोंमें यमक, समसंस्कृत प्राकृत, षड्भाषामय स्तोत्रोंका समावेश कर लेना चाहिए. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012058
Book TitleGyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherSagar Gaccha Jain Upashray Vadodara
Publication Year1969
Total Pages610
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size15 MB
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