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________________ જૈન આગમધર ઔર પ્રાકૃત વાડ્મય [ 33 स्थविर आर्य देवद्विगणिने वलभीमें संघसमवायको एकत्रित कर जैन आगमोंको व्यवस्थित किया व लिखवाया. उस समय लेखनकी प्रारम्भिक प्रवृत्ति किस रूप में हुई इसका स्पष्ट उल्लेख कहीं भी नहीं मिलता. सामान्यतया मुखोपमुख कहा जाता है कि वलभीमें हजारों की संख्या में ग्रंथ लिखे गये थे, किन्तु हमारे सामने शीलांकाचार्य, नवांगवृत्तिकार अभयदेवसूरि आदि व्याख्याकार आचायों के जो विषादपूर्ण उल्लेख विद्यमान हैं उनसे तो यह माना नहीं जा सकता कि इतने प्रमाण ग्रंथलेखन हुआ होगा. श्रीशीलांकाचार्यने सूत्रकृतांगकी अपनी वृत्तिमें इस प्रकार लिखा है : 46 इह च प्रायः सूत्रादर्शेषु नानाविधानि सूत्राणि दृश्यन्ते, न च टीकासंवादी एकोऽप्यादर्शः समुपलब्धः, अत एकमादर्शमङ्गीकृत्यास्माभिर्विवरणं क्रियत इति एतदवगम्य सूत्रविसंवाददर्शनाचितव्यामोहोन विधेय इति । " [ मुद्रित पत्र ३३६-१] अर्थात् चूर्णिसंमत मूलसूत्र के साथ तुलना की जाय ऐसी एक भी मूलसूत्र की हस्तप्रत आचार्य Riteinsो नहीं मिली थी. श्री अभयदेवाचार्यने भी स्थानांग, समवायांग व प्रश्नव्याकरण इन तीनों अंग-आगमों की वृत्ति प्रारम्भ एवं अन्तमें इमी आशयका उल्लेख किया है, जो क्रमशः इस प्रकार है : पुस्तकानामशुद्धितः । मतभेदाच्च कुत्रचित् ||२|| २. यस्य ग्रंथवरस्य वाक्यजलघेर्लक्षं सहस्राणि च चत्वारिंशदहो ! चतुर्भिरधिका मानं पदानामभूत् । तस्योच्चैरचुलुका कृतिं विदधतः कालादिदोषात् तथा, दुलैखात् खिर्ता गतस्य कुधियः कुर्वन्तु किं मादृशाः ? ||२|| १. वाचनानामनेकत्वात्, सूत्राणामतिगांभीर्याद ३. अशा वयं शास्त्रमिदं गभीरं, प्रायोऽस्य कूटानि च पुस्तकानि । सूत्रं व्यवस्थाप्यमतो विमृश्य, व्याख्यानकल्पादित पत्र नैव ॥२॥ ऊपर उदाहरण के रूपमें श्री शीलांकाचार्य व श्री अभयदेवाचार्य के जो उल्लेख दिये हैं उनसे प्रतीत होता है कि वलभीमें स्थविर आर्य देवर्द्धिगणि, गंधर्ववादिवेताल शान्तिसूरि आदिके प्रयत्नसे जो जैन आगमोंका संकलन एवं व्यवस्थापन हुआ और उन्हें पुस्तकारूढ़ किया गया, यह कार्य जैन स्थविर श्रमणोंकी जैन आगमादिको ग्रंथारूढ़ करने की अल्प रुचिके कारण बहुत संक्षिप्त रूपमें ही हुआ होगा तथा निकट भविष्य में हुए वलभीके भंगके साथ ही वह व्यवस्थित किया हुआ आगमोंका लिखित छोटा-सा ग्रंथसंग्रह नष्ट हो गया होगा । परिणाम यह हुआ कि आखिर जो स्थविर मार्य स्क्क्रन्दिल एवं स्थविर आर्य नागार्जुन के समय की हस्तप्रतियां होंगी, उन्हींकी शरण व्याख्याकारों को लेनी पड़ी होगी. यही कारण है कि प्राचीन चूर्णियां एवं व्याख्याग्रंथों में सैकड़ों पाठभेद उल्लिखित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012058
Book TitleGyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherSagar Gaccha Jain Upashray Vadodara
Publication Year1969
Total Pages610
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size15 MB
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