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________________ જ્ઞાનાંજલિ प्रकार है । बौद्ध, जैन जैसी परम्पराएँ भिक्षु या श्रमण परम्परामें सम्मिलित हैं। यद्यपि भिक्षु या श्रमण गृहस्थोंके अवलम्बनसे ही फर्म या विद्याका संरक्षण, संवर्धन करते हैं तो भी उनका निजी जीवन और उद्देश अपरिग्रहके सिद्धान्त पर अवलम्बित है-उनका कोई निजी पुत्र-परिवार आदि नहीं होता। अतएव उनके द्वारा किया जानेवाला या संरक्षण पानेवाला ग्रन्थसंग्रह सांधिक मालिकीका रहा है और आज भी है । किसी बौद्ध विहार या किसी जैन संस्थामें किसी एक आचार्य या विद्वान्का प्राधान्य कभी रहा भी हो तब भी उसके आश्रममें बने या संरक्षित ज्ञानभाण्डार तत्त्वतः संघकी मालिकीका ही रहता है या माना जाता है । ___ सामान्य रूपसे हम यही जानते हैं कि इस देशमें बौद्ध विहार न होनेसे बौद्ध संघके भाण्डार भी नहीं हैं, परन्तु वस्तुस्थिति जुदा है । यहांके पुराने बौद्ध विहारोंके छोटे-बड़े अनेक पुस्तक-संग्रह कुछ उस रूपमें और कुछ नया रूप लेकर भारतके पड़ोसी अनेक देशोंमें गए । नेपाल, तिब्बत, चीन, सीलोन, बर्मा आदि अनेक देशोंमें पुराने बौद्ध शास्त्रसंग्रह आज भी सुलभ हैं। जैन-परम्पराके भिक्षु भारतके बाहर नहीं गए। इसलिए उनके शास्त्रसंग्रह भी मुख्यतया भारतमें ही रहे । शायद भारतका ऐसा कोई भाग नहीं जहाँ जैन पुस्तक-संग्रह थोड़े-बहुत प्रमाणमें न मिले । दूर दक्षिणमें कर्णाटक, आन्ध्र, तामिल आदि प्रदेशोंसे लेकर उत्तरके पंजाब, युक्तप्रदेश तक और पूर्वके बंगाल, बिहारसे लेकर पश्चिमके कच्छ, सौराष्ट्र तक जैन भाण्डार आज भी देखे जाते हैं, फिर भले ही कहीं वे नाममात्रके हों। ये सब भाण्डार मूलमें सांधिक मालिकीकी हैसियतसे ही स्थापित हुए हैं। सांधिक मालिकीके भाण्डारोंका मुख्य लाभ यह है कि उनकी वृद्धि, संरक्षण आदि कार्योंमें सारा संघ भाग लेता है और संघके जुदे जुदे दर्जेके अनुयायी गृहस्थ धनी उसमें अपना भक्तिपूर्वक साथ देते हैं, जिससे भाण्डारोंकी शास्त्रसमृद्धि बहुत बढ़ जाती है और उसकी रक्षा भी ठीक ठीक होने पाती है। यही कारण है कि बीचके अन्धाधुन्धोके समय सैकड़ों विघ्नबाधाओंके होते हुए भी हज़ारोको संख्यामें पुराने भाण्डार सुरक्षित रहे और पुराने भाण्डारोंकी काया पर नए भाण्डारोंको स्थापना तथा वृद्धि होती रही, जो परम्परा आज तक चाल रही। इस विषयमें दो-एक ऐतिहासिक उदाहरण काफ़ी हैं । जब पाटन, खम्भात आदि स्थानोंमें कुछ उत्पात देखा तो आचार्योंने बहुमूल्य शास्त्रसम्पत्ति जेसलमेर आदि जैसे दूरवर्ती सुरक्षित स्थानोंमें स्थानान्तरित की। इससे उलटा, जहाँ ऐसे उत्पातका सम्भव न था वहाँ पुराने संग्रह वैसे ही चालू रहे, जैसे कि कर्णाटकके दिगम्बर भाण्डार । यो तो वैदिक, बौद्ध आदि परम्पराओंके ग्रन्थोंके साथ मेरा वही भाव व सम्बन्ध है जैसा जैन-परम्पराके शास्त्र-संग्रहोंके साथ, तो भी मेरे कार्यका मुख्य सम्बन्ध परिस्थितिकी दृष्टिसे जैन भाण्डारोंके साथ रहा है । इससे मैं उन्हींके अनुभव पर यहाँ विचार प्रस्तुत करता हूँ । भारतमें कमसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012058
Book TitleGyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherSagar Gaccha Jain Upashray Vadodara
Publication Year1969
Total Pages610
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size15 MB
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