SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 358
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ જ્ઞાનભંડાર પર એક દષ્ટિપાત [ 3 २५. भिन्न भिन्न प्रकारके सचित्र सुन्दर डिब्बे और पाठे । ऊपर जो विभाग दिए गए हैं उनमें से कुछ ऐसे भी हैं जिनका यदि स्वतंत्र विवेचन न किया जाय तो उनके बारेमें स्पष्ट ख्याल नहीं आ सकता । परन्तु इस संक्षिप्त लेखमें उनका विवेचन देना शक्य नहीं हैं। __ प्रस्तुत विभागोंमें श्राविका सावदेको सुन्दर लिपिमें लिखी हुई एक ताड़पत्रीय प्रति है। हमारे ज्ञानभाण्डारों में पुरुष लेखक - साधु किंवा श्रावक - द्वारा लिखित ग्रन्थोंकी नकलें तो सैकड़ों और हज़ारोंकी संख्यामें मिलती हैं, परन्तु साध्वियों एवं श्राविकाओंके हाथकी लिखी हुई प्रतियाँ तो कभी कभी- विरल ही देखने में आती हैं। मेरे प्रगुरु पूज्य प्रवर्तक दादा श्रीकान्तिविजय महाराजश्रीने मेड़ताके ज्ञानभाण्डारमें श्राविका रूपादेके हाथकी लिस्वो हुई मलयगिरिको आवश्यकवृत्तिकी प्रति देखी थी, परन्तु आज वह प्रति वहाँके भाण्डारमें नहीं है। इस समय तो हमारे सम्मुख प्राचीन गिनी जा सके ऐसी यही एक मात्र प्रति है और वह है खम्भातके शान्तिनाथ-भाण्डारमें । ज्ञानभाण्डारों पर एक दृष्टिपात इस युगके विकसित साधन और विकसित व्यवहारकी दृष्टि से लाइब्रेरी या पुस्तकालयोंका विश्वमें जो स्थान है वही स्थान पहलेके समयमें उस युगकी मर्यादाके अनुसार भाण्डारोंका था । धन, धान्य, वस्त्र, पात्र आदि दुन्यवी चीज़ोके भाण्डारोंकी तरह शास्त्रोंका भी भाण्डार अर्थात् संग्रह होता था जिसे धर्मजीवी और विद्याजोवी ऋषि-मुनि या विद्वान् ही करते थे। यह प्रथा किसी एक देश, किसी एक धर्म या किसी एक परम्परामें सीमित नहीं रही है । भारतीय आर्योंकी तरह ईरानी आर्य, क्रिश्चियन और मुसलमान भी अपने सम्मान्य शास्त्रों का संग्रह सर्वदा करते रहे हैं। भाण्डारके इतिहासके साथ अनेक बातें संकलित हैं-लिपि, लेखनकला, लेखनके साधन, लेखनका व्यवसाय इत्यादि । परन्तु यहां तो मैं अपने लगभग चालीस वर्षके प्रत्यक्ष अनुभवसे जो बातें ज्ञात हुई हैं उन्हींका संक्षेपमें निर्देश करना चाहता हूँ। जहाँ तक मैं जानता हूँ, कह सकता हूँ कि भारतमें दो प्रकारके भाण्डार मुख्यतया देखे जाते हैं - व्यक्तिगत मालिकीके और सांधिक मालिकीके । वैदिक परम्परामें पुस्तक संग्रहोंका मुख्य सम्बन्ध ब्राह्मणवर्गके साथ रहा है। ब्राह्मणवर्ग गृहस्थाश्रमप्रधान है। उसे पुत्र-परिवार आदिका परिग्रह भी इष्ट है - शास्त्रसम्मत है । अतएव ब्राह्मण-परम्पराके विद्वानोंके पुस्तक-संग्रह मुख्यतया व्यक्तिगत मालिकीके रहे हैं, और आज भी हैं। गुजरात, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल, मिथिला या दक्षिणके किसी प्रदेशमें जाकर पुराने ब्राह्मण-परम्पराके संग्रहको हम देखना चाहें तो वे किसी-न-किसी व्यक्तिगत कुटुम्बकी मालिकीके ही मिल सकते हैं । परन्तु भिक्षु-परम्परामें इससे उलटा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012058
Book TitleGyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherSagar Gaccha Jain Upashray Vadodara
Publication Year1969
Total Pages610
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy