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________________ [२८०] मा. वि.नसूरि-स्मा२७५'थ इन तीर्थों की शिल्पकला भारत ही नहीं, पर स'सार में अद्वितीय है। उसके दर्शन आज जिस रूप में हो रहे है, वह हो नहीं पाते, क्यों कि म'दिर जीर्ण ही नहीं हुए थे, उसे श्रद्धालु भक्तोने एसे बना दिए थे जिससे शिल्प की विशेषता दृष्टिगोचर नहीं हो पाती थी । देवयोग से अणदजी कल्याणजी पेढी को कस्तूरभाई जैसे शिल्पकला के मर्मज्ञ का नेतृत्व मिला था, उसका उपयोग समाज ले नहीं पाता, यदि शासनसम्राट का समर्थन और सहयोग न मिलता, धार्मिक भावनाओं और धार्मिक विधिविधानों को अक्षुण्ण रखते हुए जो काम इस दिशामे हुआ वह हो नहीं पाता । आणदजी कल्याणजी पेढी के इस महत्त्वपूर्ण कार्य को ही नहीं पर शासनप्रभावना के सभी कार्यों को आचार्य नंदनमृरिजी का सदा समर्थन रहा हैं। भगवान महावीर के २५००वे' निर्वाण-महोत्सब का कार्य भारत ही नहीं, सारे संसार में जिस तरहसे हुआ, ऐसी धर्म प्रभावना शायद ही २५०० साल में हुई हो; संसार के लोग भगवान महावीर तथा उनके उपदेशों और तत्वों का सम्यक परिचय पा सके । भगवान महावीर इनेगिने जैनों के ही नहीं, सारे संसार के पूजनीय बन गये । सारे जैन समाज ने यह उत्सव बडे उल्लास के साथ मनाया, किन्तु श्वेताम्बर समाज के कुछ आचार्यों तथा संतोने इस का विरोध किया था। किन्तु आचार्य विजयनन्दनमूरिजी महाराज ने अपना पूर्ण समर्थन देकर उत्सव मनाने में, अपने अहमदाबाद के निवास में उत्सव में योगदान देकर सक्रिय समर्थन किया था । उन्होंने २३-४-७५ को विशाल जनसमूह को संबोधन करते हुए कहा था: भगवान महावीरके २४००वे निर्वाण-महोत्सव के समय हम यहां थे नहीं, और २६००वां निर्वाण-महोत्सव आवेगा तब तक हम यहां होंगे नहीं, इस लिये २५००वां निर्वाण-महोत्सव मनाना उचित हैं। जिस के भाग्य में हो वही इस अवसर का लाभ ले सकेगे।' ___ मेरा सपर्क, जब मैं पिछले वर्ष अहमदाबाद निर्वाण-महोत्सव समिति ने मुझे अहमदाबाद बुलाया था, तभी उनसे हुआ था । लेकिन मैंने देखा और अनुभव किया कि आचार्य श्री समयज्ञ थे, बडे ही सरलस्वभावी किन्तु दृढ विचारवाले, शान्त किन्तु तेजस्वी थे, समत्वयुक्त साधुत्व किंतु व्यवहारकुशलता उनमे थी। अपनी पर परा में निष्ठा रखते हुए भी वे दूसरों के प्रति उदार थे । दूसरे संप्रदाय के साधुओं तथा आचार्यों के प्रति उदारत पूर्ण व्यवहार करते थे। वे दीघ द्रष्टा तथा विवेकशील थे । उनके निर्णय अचूक होते और उन पर स्थिर रहने की उनमे दृढता थी । कार्य का औचित्य व उपयोगिता जान लेने पर लिये हुए निर्णय में परिवतन नहीं होता। फिर उसमे चाहे जितने विघ्न आवे, वे उसका दृढतापूर्वक मुकाबला करते । वे आगमों के तो ज्ञाता थे ही, किन्तु शिल्पशास्त्र तथा ज्योतिषशास्त्र में भी अद्भुत प्रगति की थी। केवल श्वेताम्बर ही नहीं, अन्य स'प्रदाय के साधु-साध्वी मुहूर्त देखने के लिये उनके पास आते, और वे उदारतापूर्वक अपने ज्ञान का लाभ सभी को देते । ऐसे व्यापक दृष्टिकोण के आचार्य के संपर्क में आने तथा उनके विचारों को समझने का अवसर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012053
Book TitleVijaynandansuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatilal D Desai
PublisherVisha Nima Jain Sangh Godhra
Publication Year1977
Total Pages536
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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