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डॉ. शितिकण्ठ मिश्र
कभी-कभी एक ही रचना को एक विद्वान पुरानी हिन्दी, तो दूसरा पुरानी राजस्थानी और तीसरा पुरानी गुजराती की रचना बताता है। इस पुरानी राजस्थानी या जूनी गुजराती में दोनों ही प्रदेशों की भाषा के पूर्व रुप तो मिलते ही हैं, प्राकृत और अपभ्रंश के रूप भी इनमें मिले रहते हैं। इसी मिश्र-भाषा में जैनकवियों ने अपना पुष्कल साहित्य सृजित किया है। काफी पहले आ. रामचन्द्रशुक्ल ने भी कहा था कि-- आदिकाल में जो कुछ असंदिग्ध सामग्री प्राप्त है, उसकी भाषा अपभ्रंश अर्थात् प्राकृताभास हिन्दी है। इस प्राकृताभास हिन्दी का अभिप्राय यह है कि यह उस समय के कवियों की भाषा है। कवियों ने काव्य परम्परा के अनुसार साहित्यिक अपभ्रंश के पुराने शब्द तो लिए ही है, विभक्तियाँ, कारकचिन्ह, क्रियाओं के रूप आदि भी बहुत कुछ पुराने रखें गये है।
वस्तुतः काव्य-भाषा विस्तृत क्षेत्र में प्रयुक्त होने वाली शिष्ट या परिनिष्ठित भाषा होती है, जिसमें अनेक भाषा-बोलियों के प्रयोग सम्मिलित होते हैं। वह एक स्थानीय बोली मात्र नहीं होती। उसमे कई क्षेत्रीय बोलियों के पूर्व स्प भी प्राप्त होते हैं, किन्तु उस काव्य-भाषा से भावी बोलियों का उद्भव और विकास नहीं सिद्ध होता। जिस प्रकार खड़ी बोली से आधुनिक हिन्दी का और लंदन की बोली से अंग्रेजी भाषा का विकास हुआ है, उसी प्रकार कई स्थानीय बोलियों के सहयोग से मरु-गुर्जर भाषा का विकास हुआ था। अतः मरु-गुर्जर में इन सभी देशी-भाषाओं की मूल प्रवृत्तियाँ मिलती हैं और इसके अध्ययन द्वारा हमें हिन्दी, राजस्थानी और गुजराती भाषा का विकास क्रम समझने में आसानी होती है। मरु-गुर्जर का यही भाषा-वैज्ञानिक महत्त्व है।
वस्तुतः काव्य-भाषा का संयुक्त स्वरूप या षट्भाषा रूप प्राचीनकाल से प्रचलित रहा है। साहित्य की भाषा किसी प्रदेश विशेष के प्रयोगों तक ही परिमित नहीं रह सकती। अपभ्रंश इसी प्रकार की परिनिष्ठित काव्य-भाषा थी। आगे चलकर कबीर आदि निर्गुण संतों की सधुक्कड़ी भाषा भी इसी प्रकार की मिश्र-भाषा शैली थी। यही स्वस्प ब्रजभाषा का रहा, जिसके सम्बन्ध में काव्य निर्णयकार श्री भिखारीदास ने लिखा है --
"ब्रजभाषा भाषा रुचिर कहैं समति सब कोई।
मिलै संस्कृत पारस्यौ पै अति प्रगट जुहोइ। वे इस षट्भाषा के प्रमाणस्वरूप तुलसी और गंग का उदाहरण देते हैं --
"तुलसी गंग दुवौ भये सुकविन के सरदार।" इनके काव्य में मिली भाषा विविध प्रकार की है। इस "विविध प्रकार" की काव्य-भाषा का सही स्वरूप समझने के लिए मरु-गुर्जर या पुरानी हिन्दी का सही स्वरूप जानना आवश्यक है, अन्यथा आधुनिक देशी-भाषाओं के जन्म और विकास की मनगढन्त कहानियों के आधार पर प्रादेशिकता को अनावश्यक प्रश्रय दिया जाता रहेगा। सधुक्कड़ी का अर्थ आचार्य शुक्ल ने बताया है कि-- "राजस्थानी, पंजाबी मिली खड़ी बोली।" किन्तु कबीर की रमैनी और सबद् की भाषा में ब्रज और पूरबी प्रयोगों का पुट भी पर्याप्त प्राप्त होता है अर्थात् उसमें कई बोली, भाषाओं का प्रयोग सम्मिलित है। इस सधुक्कड़ी का पूर्व रुप मरु-गुर्जर भाषा ही है। हिन्दी का आदिकालीन साहित्य जो अधिकतर राजस्थान में रचा गया, मरु-गुर्जर भाषा से प्रभावित है। डिंगल और पिंगल इसी की काव्य-शैलियाँ है। धर्मसूरिकृत जम्बूस्वामीरासा की भाषा को स्व. दलाल ने जूनी गुजराती और श्री प्रेमीजी ने पुरानी हिन्दी कहा है क्योंकि ये दो भाषायें नहीं थीं। सप्तम् हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अवसर पर श्री प्रेमीजी ने जबलपुर में कहा था कि-- पुरानी हिन्दी और पश्चिमी या जूनी गुजराती तो प्रान्तभेद से एक ही भाषा के अलग-अलग पर्यायवाची नाम हैं। वि.सं. 15वीं-16वीं शताब्दी तक का जैन साहित्य इन तीनों प्रान्तों का एक ही है। श्री अगरचन्दनाहटा ने वि.सं.13वीं शताब्दी की जैन रचनाओं की भाषा पर विचार करते हुए लिखा है, 'इनमें से कुछ की भाषा अपभ्रंश प्रभावित राजस्थानी है और कुछ बोलचाल की राजस्थानी है। इनमें से कुछ राजस्थान
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