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________________ डॉ. अरुणप्रताप सिंह अनगारभावना नामक 9 अधिकार में मुनि जीवन के स्वरूप की चर्चा है। भाव की दृष्टि से इस अध्ययन की अधिकांश सामग्री प्राचीन श्वेताम्बर ग्रन्थों में देखी जा सकती है फिर भी, मैं इनके गाथा साम्य को अभी स्पष्ट रूप से खोज नहीं पाया हैं। दसवाँ अधिकार समयसारअधिकार के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें मुख्य रूप से मुनि आचार का वर्णन है। इस अधिकार में स्थान-स्थान पर अचेलकता की प्रशंसा की गई है। केवल इसी रूप में यह श्वेताम्बर परम्परा से भिन्न है, अन्यथा, इस अधिकार की भी अधिकांश गाथाएँ श्वेताम्बर ग्रन्थों से ली गई प्रतीत होती है जो मूलाचार के संकलन ग्रन्थ होने के प्रमाण को पुष्ट करती हैं। इस अधिकार में 10 श्रमणकल्पों की चर्चा है। कल्प ( कप्प) आचार-विचार के नियम से सम्बन्धित हैं। मलाचार में वर्णित 10 कल्प निम्न हैं-- आचेलक्य, औददेशिक, शय्यातर, राजपिण्ड, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठ, प्रतिक्रमण, मास एवं पर्युषण। श्वेताम्बर परम्परा में भी कुछ क्रम सम्बन्धी अन्तर के साथ कल्पों की यही अवधारणा स्वीकृत है। दिगम्बर परम्परा जहाँ आचेलक्य का अर्थ पूर्ण निर्वस्त्रता से लगाती है, श्वेताम्बर परम्परा उसका अर्थ अल्प वस्त्र से लगाती है अर्थात् मुनि को कम से कम वस्त्र ग्रहण करना चाहिए। पर्युषणकल्प की अवधारणा में भी मूलाचार के टीकाकार श्वेताम्बर परम्परा से दूर हटते प्रतीत होते हैं। टीकाकार ने पर्युषणकल्प से तात्पर्य पंच कल्याण स्थान से माना है। जबकि श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार चातुर्मासकाल में एक स्थान पर रहकर तप, संयम और ज्ञान की आराधना करना पर्युषणकल्प है। चातुर्मास काल में इस कल्प (आचरण) का विशेष महत्त्व है। इस अधिकार में अब्रहमचर्य के 10 कारणों का उल्लेख है। ये 10 कारण निम्न हैं -- विपुलाहार, कायशोधन, गन्धमाला का सेवन, गीत, उच्चशय्या, स्त्री-संसर्ग, अर्थ-संग्रहण, पूर्वरति स्मरण, इन्द्रियों के विषयों का सेवन, प्रणीतरवसेवा।। इसकी तुलना उत्तराध्ययन के 16वें अध्याय ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान से की जा सकती है जिसमें अब्रह्मचर्य के कारणों का विस्तृत विश्लेषण किया गया है। इस अधिकार की कई गाथाएँ विशेषावश्यकभाष्य से भी मिलती है। इस अधिकार में पापश्रमण12 की कल्पना है। इसकी तुलना उत्तराध्ययन के 17वें अध्याय पापश्रमणीय नामक अध्ययन से की जा सकती है। ग्यारहवाँ अधिकार शीलगुणाधिकार है। इसमें 10 श्रमणधर्मों का उल्लेख है। मूलरूप से इन श्रमणधर्मों का उल्लेख समवायांग में है। बारहवाँ एवं अन्तिम अधिकार पर्याप्त्याधिकार है इसमें छः पर्याप्तियों की चर्चा की गई है। इस सम्बन्ध में सामान्य रूप से श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा में कोई भेद नहीं है। इस अधिकार में शलाकापुरुष (सलागपुरिसा) की चर्चा है। शलाकापुरुष की कल्पना बाद में विकसित हुई है, इस आधार पर भी मूलाचार की प्राचीनता में संदेह उत्पन्न होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि मूलाचार में श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों से अनेक बातें ली गई है। यदि अचेलकत्व और शौरसेनी प्राकृत के अन्तर को नजर-अन्दाज कर दें तो यह एक श्वेताम्बर ग्रन्थ जैसा प्रतीत होता है फिर भी, हमें मूलाचार को यापनीय परम्परा का एक संकलन ग्रन्थ होने में सन्देह नहीं करना चाहिए क्योंकि जहाँ कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों का बिल्कुल प्रभाव या उल्लेख नहीं है, वहाँ इसमें यह प्रभाव स्पष्ट देखा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012052
Book TitleShwetambar Sthanakvasi Jain Sabha Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages176
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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