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________________ डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय गणिसंपदा नामक चतुर्थ अध्ययन में गणि एवं संपदा पदों की व्याख्या करते हुए "गणि" व "गुणी" को एकार्थक बताया गया है। आचार को प्रथम गणिस्थान दिया गया है क्योंकि इसके अध्ययन से श्रमण धर्म का ज्ञान होता है। संपदा के द्रव्य व भाव दो भेद करते हुए आचार्य ने शरीर संपदा को द्रव्यसंपदा एवं आचारसंपदा को भावसंपदा का नाम दिया है। 73 चित्तसमाधिस्थान नामक पंचम् अध्ययन की नियुक्ति में उपासक एवं प्रतिमा का निक्षेपपूर्वक विवेचन किया गया है । चित्त व समाधि की चार निक्षेपों के आधार पर व्याख्या करते हुए राग-द्वेषरहित चित्त के विशुद्ध धर्म- ध्यान में लीन होने की अवस्था को भावसमाधि कहा गया है। उपासकप्रतिमा नामक षष्ठ अध्ययन में " उपासक" और "प्रतिमा" का निक्षेपपूर्वक चिन्तन करते हुए उपासक के द्रव्योपासक, तदर्थोपासक, मोहोपासक एवं भावोपासक रूप चार भेदों एवं श्रमणोपासक की ग्यारह प्रतिमाओं का निरूपण किया गया है। सप्तम् अध्ययन भिक्षुप्रतिमा का है इसमें भाव भिक्षु की समाधिप्रतिमा, उपधानप्रतिमा, विवेकप्रतिमा, प्रतिसंलीनप्रतिमा एवं एक बिहारप्रतिमा का उल्लेख है। अष्टम् अध्ययन की निर्युक्ति में पर्युषणाकल्प का व्याख्यान किया गया है। परिवसना, पर्युषणा, वर्षावास, प्रथमसमवरण आदि को एकार्थक कहा गया है। नवम् अध्ययन मोहनीय स्थान का है, जिसमें मोहनामादि भेद से चार प्रकार का है। पाप, वैर, वर्ज्य, पंक, असाह, संग आदि मोह के पर्यायवाची हैं, ऐसा उल्लेख किया गया है I अजाति स्थान नामक दशम् अध्ययन में अजाति अर्थात् जन्म-मरण से विमुक्ति-मोक्ष कैसे प्राप्त होता है, का विशद विवेचन किया गया है। 7. बृहत्कल्पनिर्युक्ति यह नियुक्तिभाष्यमिश्रित अवस्था में मिलती है। सर्वप्रथम तीर्थंकरों को नमस्कार किया गया है। 74 तदुपरान्त ज्ञान और मंगल में कथंचित भेद-अभेद करते हुए ज्ञान के विविध भेदों का निर्देश किया गया है। मंगल के नाममंगल, स्थापनामंगल, द्रव्यमंगल एवं भावमंगल 75 की निक्षेप पद्धति से व्याख्या करते हुए अनुयोग, उपक्रम, अनुगम और नय इन चार अनुयोग द्वारों की चर्चा की गई है। इसके अतिरिक्त नियुक्तिकार ने सपरिग्रह-अपरिग्रह, जिनकाल्पिक एवं स्थविरकाल्पिक के आहार-विहार की चर्चा करते हुए आर्यक्षेत्र के बाहर विचरण करने से लगने वाले दोषों का स्कन्दकाचार्य के दृष्टान्त के साथ दिग्दर्शन कराया है। साथ ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र की रक्षा और वृद्धि के लिये आर्य क्षेत्र के बाहर विचरण की आज्ञा एवं संप्रतिराज के दृष्टान्त से उसके समर्थन76 का भी उल्लेख मिलता है। यह नियुक्ति स्वतन्त्र न रहकर बृहत्कल्पभाष्य में मिश्रित हो गई है। 8. व्यवहारनियुक्ति बृहत्कल्प में श्रमण जीवन की साधना का जो शब्द-चित्र प्रस्तुत किया गया एवं उत्सर्ग व अपवाद का जो विवेचन किया गया, उन्हीं विषयों पर व्यवहार में भी चिन्तन किया गया है। यही कारण है कि व्यवहारनियुक्ति में अधिकतर उन्हीं अथवा उसी प्रकार के विषयों का विवेचन है जो बृहत्कल्पनिर्युक्ति में उपलब्ध हैं। अतः ये दोनों नियुक्तियाँ एक-दूसरे की पूरक हैं। 9. सूर्यप्रज्ञप्तिनियुक्ति एवं 10. ऋषिभाषितनियुक्ति अनुपलब्ध है, जिसकी अन्य नियुक्तियों के साथ संक्षिप्त परिचयात्मक चर्चा करेंगें I Jain Education International 55 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012052
Book TitleShwetambar Sthanakvasi Jain Sabha Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages176
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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