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________________ डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय है। 2 अभिभव कायोत्सर्ग की काल मर्यादा अधिकतम एक वर्ष एवं न्यूनतम अन्तर्मुहत है। इसके अतिरिक्त इस अध्ययन में नियुक्तिकार ने कायोत्सर्ग के भेद परिमाण34, गुण, ध्यान का स्वरूप एवं भेद35, कायोत्सर्ग के विविध-अतिचार शुद्धि-उपाय, शठ एवं अशठ बर२०, कायोत्सर्ग की विधि, घोटकलत आदि उन्नीस दोष 38, कायोत्सर्ग के अधिकारी एवं कायोत्सर्ग के परिणाम39 की विस्तृत विवेचना की है। प्रत्याख्यान -- आवश्यकसूत्र का षष्ठ अध्ययन प्रत्याख्यान के रूप में है। आचार्यभद्रबाहु ने प्रत्याख्यान का निरूपण छः दृष्टियों से किया है। (1) प्रत्याख्यान, (2) प्रत्याख्याता, (3) प्रत्याख्येय, (4) पर्षद, (5) कथनविधि एवं (6) फल।40 प्रत्याख्यान के छ: भेद है-- (1) नामप्रत्याख्यान, (2) स्थापनाप्रत्याख्यान, (3) द्रव्यप्रत्याख्यान, (4) आदित्साप्रत्याख्यान, (5) प्रतिषेधप्रत्याख्यान एवं (6) भावप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान से आसव का निरुन्धन एवं समता की सरिता में अवगाहन होता है। प्रत्याख्यातव्य, द्रव्य व भाव स्प से दो प्रकार का होता है। अशनादि का प्रत्याख्यान प्रथम द्रव्यप्रत्याख्याण्य है एवं अज्ञानादि का प्रत्याख्यान भावप्रत्याख्यातव्य है। प्रत्याख्यान के अधिकारी को बताते हुए आचार्य ने कहा है कि प्रत्याख्यान का वही अधिकारी है जो विनीत एवं अव्यक्षिप्तरूप हो। अन्त में प्रत्याख्यान के फल की विवेचना की गई है। ___ आवश्यकनियुक्ति के इस विस्तृत विवेचन से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि जैननियुक्ति ग्रन्थों में आवश्यकनियुक्ति का कितना महत्त्व है। श्रमण जीवन की सफल साधना के लिये अनिवार्य सभी प्रकार के विधि-विधानों का संक्षिप्त, सुव्यवस्थित एवं मर्मस्पर्शी निरुपण आवश्यकनियुक्ति की एक बहुत बड़ी विशेषता है। 2. दशवकालिकनियुक्ति इस नियुक्ति के आरम्भ में आचार्य ने सर्वसिद्धों को नमस्कार करके इसकी रचना करने की प्रतिज्ञा की है।41 "दश" और "काल" इन दो पदों से सम्बन्ध रखने वाले दशवकालिक की निक्षेप पद्धति से व्याख्या करते हुये आचार्य ने बताया है कि "दश" का प्रयोग इसलिये किया गया है क्योंकि इसमें "दस" अध्ययन है एवं "काल" का प्रयोग इसलिए है कि इस सत्र की रचना उस समय हुई जबकि पौरुषी व्यतीत हो चुकी थी अथवा जो दस अध्ययन पूर्वो से उद्धृत किये गये, उनका सुव्यवस्थित निरुपण विकाल अर्थात् अपराह्न में किया गया। इसीलिए इस सूत्र का नाम दशवकालिक रखा गया। इस सूत्र की रचना मनक नामक शिष्य के हेतु आचार्यशयम्भव ने की।८ दशवैकालिक में द्रुमपुष्पिका आदि दस अध्ययन है। प्रथम अध्ययन में धर्म की प्रशंसा करते हुये उसके लौकिक और लोकोत्तर ये दो भेद एवं उनके अवान्तर भेदों को बताया गया है।43 द्वितीय अध्ययन 4 में धृति की स्थापना की गई है। तृतीय अध्ययन 5 में क्षुल्लकाचार अर्थात् लघु-आचार कथा का अधिकार है। चौथे अध्ययन में आत्मसंयम के लिये षड्जीवरक्षा का उपदेश दिया गया है। पिण्डैषणा नामक पंचम अध्ययन47 की नियुक्ति में आचार्य ने "पिण्ड" और "एषणा" इन दो पदों की निक्षेपरूप से व्याख्या करते हये भिक्षाविशद्धि के विषय में विशद विवेचना की है। छठे अध्ययन में बहद आचार कथा का प्रतिपादन है। सप्तम अध्ययन वचन विभक्ति का अधिकार है। अष्टम अध्ययन प्राणिधान अर्थात विशिष्ट चित्तधर्म सम्बन्धी है। नवम अध्ययन में विनय का एवं दसवें 2 अध्ययन में भिक्षु का अधिकार है। इन अध्ययनों के अतिरिक्त इस सूत्र में दो चूलिकाएँ हैं -- प्रथम चूलिका में संयम में स्थिरीकरण का और दूसरी में विविवत्तचर्या का वर्णन है। दशवकालिकनियुक्ति पर अनेक टीकाएँ एवं चूर्णि लिखी गईं हैं, जिनमें जिनदासगणिमहत्तर की चूर्णि अधिक प्रसिद्ध है। 3. उत्तराध्ययननियुक्ति दशवकालिक की भाँति इस नियुक्ति में भी अनेक पारिभाषिक शब्दों की निक्षेप दृष्टि से व्याख्या की गई है। 52 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012052
Book TitleShwetambar Sthanakvasi Jain Sabha Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages176
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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