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________________ जैन आगम और आगमिक व्याख्या साहित्य : एक अध्ययन 4. प्रज्ञापना -- इसमें 349 सूत्र है जिनमें प्रज्ञापना, स्थान आदि 36 पदों का वर्णन है। जैसे अडअंग में भगवतीसूत्र बड़ा है वैसे ही उपांगों में यह बड़ा है। 5. सूर्यप्रज्ञप्ति -- इसमें सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रों की मुनियों का 108 सूत्रों में ( 20 पाहुडों में) विस्तार से वर्णन 6. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति -- इसमें 7 वक्षस्कार (परिच्छेद) है जनमें 176 सूत्र है। तीसरे वक्षस्कार में भारतवर्ष और राजा भरत का वर्णन है। जम्बूद्वीप की जानकारी के लिए महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। 7. चन्द्रप्रज्ञप्ति -- इसकी विषयवस्तु सूर्यप्रज्ञप्ति के समान है। इसमें 20 प्राभृत है। 8. निरयावलिया -- इसमें 5 उपांग समाविष्ट है -- 1. निरयावलिया अथवा कल्पिका, 2. कल्पावतंसिका, 3. पुष्पिका, 4. पुष्पचूलिका और 5. वृष्णिदशा । निरयावलिया (कल्पिका) में 10 अध्ययन है जिनमें राजा कूणिक आदि की कथायें हैं। मगध का इतिहास जानने के लिए यह बहुत उपयोगी है। 9. कल्पावतंसिका -- इसमें 10 अध्ययन हैं जिनमें राजा श्रेणिक के 10 पौत्रों के सत्कर्म की कथायें हैं। 10. पुष्पिका -- इसमें 10 अध्ययन है जिनमें चन्द्र, सूर्य और शुक्र के वर्णन के साथ अन्य कथायें हैं। 11. पुष्पचूलिका -- इसके 10 अध्ययनों में श्री, ही आदि की कथायें हैं। 12. वृष्णिदशा -- इसमें 12 अध्ययन है जिनमें द्वारका के राजा कृष्ण वसुदेव के वर्णन के साथ वृष्णिवंशीय 12 राजकुमारों की कथायें हैं। मूलसूत्र -- साधु जीवन के मूलभूत नियमों का उपदेश होने से ये मूलसूत्र कहलाते हैं। "मूलसूत्र" नाम का भी उल्लेख प्राचीन आगमों में नहीं मिलता। मूलसूत्र नामकरण के विषय में, इनकी संख्या के विषय में तथा मूलसूत्रान्तर्गत आगम नामों के विषय में मतभेद है। उत्तराध्ययन और दशवैकालिक को सभी एक स्वर से मूलसूत्र मानते हैं। अन्य नामों में आवश्यक, नन्दि और अनुयोगद्वार प्रमुख हैं। पिण्डनियुक्ति, ओघनियुक्ति और पाक्षिकसूत्र को भी कुछ लोग मूलसूत्रों में गिनते हैं। ऐसा इन ग्रन्थों के महत्त्व के कारण है। 1. उत्तराध्ययन -- यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण और प्राचीन ग्रन्थ है। इसमें 36 अध्ययन हैं जिनमें कछ आख्यानप्रधान हैं, कुछ उपदेशात्मक हैं और कुछ दार्शनिक सिद्धान्तों के प्रतिपादक हैं। 2. दशवकालिक -- यह भी उत्तराध्ययन की तरह प्राचीन और महत्त्वपूर्ण है। इसमें 10 अध्ययन है तथा विकाल (सन्ध्याकाल) में अध्ययन किया जाने के कारण इसका नाम दशवैकालिक है। मुनि का आचार प्रतिपादित करना इसका मुख्य विषय है। इसके रचयिता स्वयम्भव हैं। 3. आवश्यक -- इसमें सामायिक आदि 6 नित्यकर्म प्रतिपादक ग्रन्थ सम्मिलित हैं। (4 - 6.) नन्दी और अनुयोगद्वार -- ये दोनों आगमों के परिशिष्ट जैसे हैं। नन्दी दूष्यगणि के शिष्य देववाचक की और अनुयोगदार आर्यरक्षित की रचना है। (7) ओघनियुक्ति -- ओघ का अर्थ है सामान्य। इसमें साधु के सामान्य आचार-विचार का दृष्टान्त शैली में वर्णन है। यह भी भद्रबाहु की रचना है। (8) पाक्षिकसत्र -- यह आवश्यक का अंग है क्योंकि इसमें साध के पाक्षिक प्रतिक्रमण का वर्णन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012052
Book TitleShwetambar Sthanakvasi Jain Sabha Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages176
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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