________________
दिगम्बर जैन परम्परा में संघ, गण, गच्छ, कुल और अन्वय
गया, तब आचार्य कुन्दकुन्द की भाँति आचरण की विशुद्धता के पक्षपाती आचार्यों ने शिथिलाचार के विरोध में अपने संघ को तीर्थंकर महावीर के मूलसंघ के निकट (या उनकी सीधी परम्परा का) घोषित करने के लिए "मूलसंघ" नाम दिया। क्योंकि दिगम्बरों में आचार्य कुन्दकुन्द आचरण की विशुद्धता के प्रबल समर्थक थे। अतः मूलसंघ का सम्बन्ध आचार्य कुन्दकुन्द के साथ स्थापित कर दिया तथा अपने से अतिरिक्त जैन संघों को जैनाभासी घोषित कर दिया, क्योंकि इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार में गोपुच्छिक, श्वेतवसना, द्राविड, यापनीय और निर्पिच्छिक -- इन पाँच संघों को जैनाभास कहा है।18 इनके अतिरिक्त "बलि" नामक अन्वय के एक उपभेद का भी उल्लेख मिलता है, जिसका अर्थ है 'परिवार।
इस तरह हम देखते हैं कि संघ के अन्तर्गत उपर्युक्त इकाइयाँ कार्य कर रही थीं, इनमें पहले परस्पर भेद या अन्तर का ही पता नहीं चलता था, किन्तु बाद में क्रमशः इनमें दूरियाँ बढ़ती गईं।
पदमचरित्र19 के रचयिता रविषेणाचार्य (वि.सं. 834) ने अपने ग्रन्थ में गुरुपरम्परा दी है, किन्तु अपने किसी संघ या गण का उल्लेख नहीं किया। इससे भी यह ज्ञात होता है कि दिगम्बर परम्परा में तब तक देव, नन्दि, सेन, सिंह, संघों की उत्पत्ति नहीं हुई थी, कम से कम ये भेद स्पष्ट नहीं हुए थे। शक सं. 1355 के मंगराज कवि के शिलालेख में इस बात का उल्लेख है कि भट्ट अकलंकदेव के स्वर्गवास के बाद यह संघ-भेद
हुआ।20
दिगम्बर जैन परम्परा में संघ, गण, गच्छ, अन्यय आदि की परम्पराएँ
भगवान महावीर का संघ, जो उनके बाद निर्गन्य महाश्रमण संघ के स्प में प्रसिद्ध था, वही भद्रबाहु श्रुतकेवली के समय उत्तर भारत में बारह वर्षीय दुर्भिक्ष के कारण दक्षिण भारत गया था और यह निर्गन्थ संघ ही बाद में "मूलसंघ" के नाम से प्रसिद्ध हुआ और दूसरा श्वेतपट महाश्रमण संघ के नाम से विख्यात हुआ।21 श्वेताम्बर परम्परा के कल्पसूत्र स्थविरावली में इस परम्परा के विविध भेदस्प गण तथा शाखाओं के नाम उल्लिखित हैं।
विविध भेदरूप गण, कुल, शाखाएँ आदि चाहे दिगम्बर परम्परा की हों अथवा श्वेताम्बर परम्परा की -- इन सब अन्तर्भेदों का कारण आचार-विचार भेद रहा है। यहाँ दिगम्बर परम्परा के संघ, गण, गच्छों आदि की परम्पराओं का विवेचन प्रस्तुत है--
इन्द्रनन्दि ने अपने श्रूतावतार ग्रन्थ में लिखा है22 कि वीर नि.सं. 565 वर्ष बाद पुण्डवर्धनपुरवासी आचार्य अर्हदबली प्रत्येक पाँच वर्षों के बाद में सौ योजन की सीमा में बसने वाले मुनियों को युग प्रतिक्रमण के लिए बुलाते थे। एक समय उन्होंने ऐसे प्रतिक्रमण के अवसर पर समागत मुनियों से पूछा कि क्या सभी आ गये? तो मुनियों ने उत्तर दिया -- हाँ, हम अपने संघ के साथ आ गये हैं। इस उत्तर को सुनकर उन्हें लगा कि जैनधर्म अब गण-पक्षपात के साथ ही रह सकेगा। अतः उन्होंने नन्दि, वीर, अपराजित, देव, पंचस्तूप, सेन, भद्र, गुणधर, गुप्त, सिंह, चन्द्र आदि नामों से विभिन्न संघ स्थापित किये, ताकि परस्पर में धर्म वात्सल्य भाव वृद्धिगत हो सके।
आचार्य अर्हदबलि ने समागत निर्गन्थ संघ में से जो मुनियों का समूह गुफा से आया था उन्हें "नन्दि" नाम दिया। जो अशोक वाटिका से आये थे उनमें से किन्हीं को "वीर", किन्हीं को "अपराजित" और कुछ को "देव" नाम दिया। जो पंचस्तूप निवास से आये थे उनमें से कुछ को "सेन" तो कुछ को "भद्र" नाम दिया। जो शाल्मलिवृक्ष मूल से आये थे, उनमें से किन्हीं को "गुणधर", तो कुछ को "गुप्त" नाम दिया। जो खण्डकेशर वृक्ष के मूल से आये थे, उनमें से कुछ को "सिंह" तथा किन्हीं को "चन्द्र" नाम दिया।23 संघ के पाँच भेद उपर्युक्त सभी संघ "मूलसंघ" के अन्तर्गत ही हैं। डॉ. चौधरी जी ने लिखा है कि "मलसंघ" के पुनर्गठन
135
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org