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________________ श्वेताम्बर सम्प्रदाय के गच्छों का सामान्य परिचय परम्परा में गच्छ का अस्तित्व समाप्त हो गया। राजगच्छ चन्द्रकुल से समय-समय पर अनेक गच्छों का प्रादुर्भाव हुआ, राजगच्छ भी उनमें एक है। वि.सं. की 11वीं शती के आस-पास इस गच्छ का प्रादुर्भाव माना जाता है। चन्द्रकुल के आचार्य प्रद्युम्नसूरि के प्रशिष्य और अभयदेवसूरि के शिष्य धनेश्वरसूरि 'प्रथम' दीक्षा लेने के पूर्व राजा थे, अतः उनकी शिष्य-सन्तति राजगच्छ के नाम से विख्यात हुई। इस गच्छ में धनेश्वरसूरि 'द्वितीय, अनेक कृतियों के कर्ता पार्श्वदेवगणि अपरनाम श्रीचन्द्रसूरि, सिद्धसेनसूरि, देवभद्रसूरि, माणिक्यचन्द्रसूरि, प्रभाचन्द्रसूरि आदि कई प्रभावक और विद्वान् आचार्य हुए हैं। इसी गच्छ के वादीन्द्र धर्मघोषसूरि की शिष्य सन्तति अपने गुरु के नाम पर धर्मघोषगच्छीय कहलायी। यद्यपि राजगच्छ से सम्बद्ध अभिलेखीय साक्ष्य भी मिलते हैं जो वि.सं. 1128 से वि.सं. 1509 तक के हैं, तथापि उनकी संख्या न्यून ही है। साहित्यिक साक्ष्यों द्वारा इस गच्छ का अस्तित्व वि.सं. की 14वीं शती तक ही ज्ञात हो पाता है किन्तु अभिलेखीय साक्ष्यों द्वारा वि.सं. की 16वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक इस गच्छ का अस्तित्व प्रमाणित होता है। रुद्रपल्लीयगच्छ यह खरतरगच्छ की एक शाखा है जो वि.सं. 1204 में जिनेश्वरसूरि से अस्तित्व में आयी। रुद्रपल्ली नामक स्थान से इस गच्छ की उत्पत्ति हुई। इस गच्छ में देवसुन्दरसूरि, सोमसुन्दरसूरि, गुणसमुद्रसूरि, हर्षदेवसरि, हर्षसुन्दरसरि आदि कई आचार्य हुए हैं। वि.सं. की 17वीं शताब्दी तक इस गच्छ की विद्यमानता का पता चलता है।47 वायडगच्छ गुजरात राज्य के पालनपुर जिले में अवस्थित डीसा नामक स्थान के निकट वायड नामक ग्राम है जहाँ से छठवीं-सातवीं शती में वायडज्ञाति और वायडगच्छ की उत्पत्ति मानी जाती है। इस गच्छ में पट्टधर आचार्यों को जिनदत्त, राशिल्ल और जीवदेव ये तीन नाम पुनः पुनः प्राप्त होते थे, जिससे पता चलता है कि इस गच्छ के अनुयायी चैत्यवासी रहे। बालभारत और काव्यकल्पलता के रचनाकार अमरचन्द्रसूरि, विवेकविलास व शकुनशास्त्र के प्रणेता जिनदत्तसूरि वायडगच्छ के ही थे। सुकृतसंकीर्तन का रचनाकार ठक्कुर अरिसिंह इसी गच्छ का अनुयायी एक श्रावक था।48 विद्याधरगच्छ नागेन्द्र, निवृत्ति और चन्द्र कुल की भाँति विद्याधरकुल भी बाद में विद्याधर गच्छ के रूप में प्रसिद्ध हुआ। इस गच्छ से सम्बद्ध कुछ प्रतिमालेख प्राप्त हुए हैं। जालिहरगच्छीय देवप्रभसरि द्वारा रचित पद्मप्रभचरित [रचनाकाल वि.सं. 1254/ई.सन् 1198] की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि काशहद और जालिहर ये दोनों विद्याधर गच्छ की शाखायें हैं।49 विद्याधरगच्छ के सम्बन्ध में विशेष विवरण अन्वेषणीय हैं। संडेरगच्छ मध्ययुगीन श्वेताम्बर चैत्यवासी गच्छों में संडेरगच्छ का भी प्रमुख स्थान है। जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट होता है संडेर (वर्तमान सांडेराव - राजस्थान) नामक स्थान से यह गच्छ अस्तित्व में आया। ईश्वरसूरि इस गच्छ के आदिम आचार्य माने जाते हैं। शालिसरि, सुमतिसूरि, शांतिसूरि और ईश्वरसूरि ये चार नाम पुनः पुनः इस गच्छ के पट्टधर आचार्यों को प्राप्त होते रहे। संडेरगच्छीय मुनिजनों द्वारा लिखित ग्रन्थों की अन्त्य प्रशस्तियों एवं उनकी प्रेरणा से लिखाये गये ग्रन्थों की दाता प्रशस्तियों में इस गच्छ के इतिहास की महत्त्वपूर्ण सामग्री संकलित है। यही बात इस गच्छ से सम्बद्ध प्रतिमालेखों--जो वि.सं. 1039 से वि.सं. 1732 तक के हैं, के बारे में भी कही जा सकती है। सागरदत्तरास [रचनाकाल वि.सं. 15501, ललितांगधरित, श्रीपालचौपाइ, सुमित्रचरित्र आदि के रचनाकार ईश्वरसूरि इसी गच्छ के थे। प्राचीन ग्रन्थों के प्रतिलेखन की पुष्पिकाओं के आधार पर ई.सन की 18वीं शती तक इस गच्छ का अस्तित्व ज्ञात होता है। सरवालगच्छ पूर्वमध्ययुगीन श्वेताम्बर चैत्यवासी गच्छों में सरवालगच्छ भी एक है। चन्द्रकूल की एक शाखा 127 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012052
Book TitleShwetambar Sthanakvasi Jain Sabha Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages176
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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