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________________ शिवप्रसाद और चैत्यों की देखरेख में ही प्रवत्त रहते थे। श्रावकों को नतन जिनप्रतिमाओं के निर्माण की प्रेरणा देना ही इनका प्रमुख कार्य रहा। सुविहितमार्गीय मुनिजनों के बढ़ते हुए प्रभाव के बावजूद चैत्यवासी गच्छों का लम्बे समय तक बने रहना समाज में उनकी प्रतिष्ठा और महत्त्व का परिचायक है। निवृत्तिगच्छ निर्गन्थ दर्शन के चैत्यवासी गच्छों में निवृत्तिकुल (बाद में निवृत्तिगच्छ) भी एक है। पर्युषणाकल्प की स्थविरावली में इस कुल का उल्लेख नहीं मिलता। इससे प्रतीत होता है कि यह कुल बाद में अस्तित्व में आया। इस कुल का सर्वप्रथम उल्लेख अकोटा से प्राप्त धातु की दो प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों में प्राप्त होता है। उमाकान्त पी. शाह ने इन लेखों की वाचना इस प्रकार दी है37-- 1. ॐ देवधर्मोयं निवार)तिकुले जिनभद्रवाचनाचार्यस्य। 2. ऊँ निवार्वतिकुले जिनभद्रवाचनाचार्यस्य। शाह ने इन प्रतिमाओं का काल ई.सन् 550 से 600 के मध्य माना है। दलसुख भाई मालवणिया के अनुसार वाचनाचार्य और क्षमाश्रमण समानार्थक शब्द हैं, अतः जिनभद्रवाचनाचार्य और प्रसिद्ध भाष्यकार जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण एक ही व्यक्ति माने जा सकते हैं। उपमितिभवप्रपंचाकथा [रचनाकाल वि.सं. 962/ई.सन 9061, सटीकन्यायावतार, उपदेशमालाटीका के रचनाकार सिद्धर्षि, चउपन्नमहापुरुषचरियं । रचनाकाल वि.सं. 925/ई.सन् 8691 के रचनाकार शीलाचार्य अपरनाम विमलमति अपरनाम शीलाड़क, प्रसिद्ध ग्रन्थसंशोधक द्रोणाचार्य, सूराचार्य आदि भी इसी कुल से सम्बद्ध थे। यद्यपि इस कुल या गच्छ से सम्बद्ध अभिलेख वि.सं. की 16वीं शती तक के हैं, परन्तु उनकी संख्या न्यून ही है। इस गच्छ के आदिम आचार्य कौन थे, यह गच्छ कब अस्तित्व में आया, इस बारे में उपलब्ध साक्ष्यों से कोई जानकारी नहीं मिलती। यद्यपि पट्टावलियों में नागेन्द्र, चन्द्र और विद्याधर कुलों के साथ इस कुल की उत्पत्ति का भी विवरण मिलता है, किन्तु उत्तरकालीन एवं भ्रामक विवरणों से युक्त होने के कारण ये पटटावलियाँ किसी भी गच्छ के प्राचीन इतिहास के अध्ययन के लिये यथेष्ठ प्रामाणिक नहीं मानी जा सकती हैं। महावीर की परम्परा में निवृत्तिकूल का उल्लेख नहीं मिलता, अतः क्या यह पापित्यों की परम्परा से लाटदेश में निष्पन्न हुआ, यह अन्वेषणीय है। पल्लीवालगच्छ पल्ली [वर्तमान पाली, राजस्थान] नामक स्थान से पल्लीवाल ज्ञाति और श्वेताम्बरों के पल्लीवालगच्छ की उत्पत्ति मानी जाती है। इस गच्छ से सम्बद्ध साहित्यिक और अभिलेखीय दोनों प्रकार के साक्ष्य प्राप्त होते हैं। कालिकाचार्यकथा [रचनाकाल वि.सं. 1365] के रचनाकार महेश्वरसूरि, पिंडविशद्धिदीपिका [रचनाकाल वि.सं. 1627], उत्तराध्ययनबालावबोधिनीटीका [ रचनाकाल वि.सं. 1629] और आचारांगदीपिका के रचयिता अजितदेवसरि इसी गच्छ से सम्बद्ध थे। पल्लीवालगच्छ से सम्बद्ध जो प्रतिमालेख प्राप्त हुए हैं वे वि.सं. 1383 से वि.सं. 1681 तक के हैं।38 इस गच्छ की एक पट्टावली भी प्राप्त हुई है, जिसके अनुसार यह गच्छ चन्द्रकुल से उत्पन्न हुआ है। पूर्णतल्लगच्छ चन्द्रकुल से उत्पन्न गच्छों में पूर्णतल्लगच्छ भी एक है। इस गच्छ में जिनदत्तसूरि, यशोभद्रसूरि, प्रद्युम्नसूरि, गुणसेनसूरि, देवचन्द्रसूरि, कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि, अशोकचन्द्रसूरि, चन्द्रसेनसूरि, रामचन्द्रसूरि, गुणचन्द्रसूरि, बालचन्द्रसूरि आदि कई आचार्य हुए।39 तिलकमंजरीटिप्पण, जैनतर्कवार्तिकवृत्ति आदि के रचनाकार शांतिसूरि इसी गच्छ के थे। देवचन्द्रसूरि ने स्वरचित शांतिनाथचरित [ रचनाकाल व.सं. 1160/ई.सन 1104] की प्रशस्ति में अपनी गुरु-परम्परा का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है-- 124 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012052
Book TitleShwetambar Sthanakvasi Jain Sabha Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages176
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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