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________________ श्वेताम्बर सम्प्रदाय के गच्छों का सामान्य परिचय - शिवप्रसाद विश्व के सभी धर्म एवं सम्प्रदाय अपने उद्भव के पश्चात् कालान्तर में अनेक शाखाओं-उपशाखाओं आदि में विभाजित होते रहे हैं। जैनधर्म भी इसका अपवाद नहीं है। यह विभाजन अनेक कारणों से होता रहा है और इनमें सबसे प्रधान कारण रहा है -- देश और काल की परिवर्तनशील परिस्थितियाँ एवं परिवेश। इन्हीं के फलस्वरूप परम्परागत प्राचीन विधि-विधानों के स्थान पर नवीन विधि-विधानों और मान्यताओं को प्रश्रय देने से मूल परम्परा में विभेद उत्पन्न हो जाता है। कभी-कभी यह मतभेद वैयक्तिक अहं की पुष्टि और नेतृत्व के प्रश्न को लेकर भी होता है, फलतः एक नई शाखा अस्तित्त्व में आ जाती है। पुनः इन्हीं कारणों से उसमें भी भेद होता है और नई-नई उपशाखाओं का उदय होता रहता है। निर्गन्य श्रमण संघ में भगवान महावीर के समय में ही गोशालक एवं जामालिने संघभेद के प्रयास किये, परन्तु गोशालक आजीवक संघ में सम्मिलित हो गया और जामालि की शिष्य-परम्परा आगे नहीं चल सकी। वीरनिर्वाण के बाद की शताब्दियों में निर्गन्थ श्रमण संघ विभिन्न गण, शाखा, कुल और अन्वयों में विभक्त होता गया। कल्पसूत्र और नन्दीसूत्र की स्थविरावलियों में वीरनिर्वाण सम्वत् 980 अर्थात् विक्रम सम्वत् की 5वीं-6ठीं शताब्दी तक उत्तर भारत की जैन परम्परा में कौन-कौन से जैन आचार्यों से कौन-कौन से गण, कुल और शाखाओं का जन्म हुआ, इसका सुविस्तृत विवरण संकलित है। ये सभी गण कुल और शाखायें गुरु-परम्परा विशेष से ही सम्बद्ध रही है। इनके धार्मिक विधि-विधानों में किसी प्रकार का मतभेद था या नहीं, यदि मतभेद था, तो किस प्रकार का था ? इन बातों की जानकारी हेतु हमारे पास कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। निर्ग्रन्थ श्रमण संघ के जो श्रमण दक्षिण में चले गये थे, वे भी कालान्तर में गणों एवं अन्वयों में विभाजित हुए। यह परम्परा दिगम्बर सम्प्रदाय के रूप में जानी गयी। उत्तर भारत के निर्गन्थ संघ में लगभग दूसरी शती में वस्त्र के प्रश्न को लेकर संघ भेद हुआ और एक नवीन परम्परा का उद्भव हुआ जो आगे चलकर बोटिक या यापनीय नाम से प्रसिद्ध हुई। पीछे से जो संघभेद हुए उनके मूल में सैद्धान्तिक विधि-विधान सम्बन्धी भेद अवश्य विद्यमान रहे, किन्तु यहाँ इन सब की चर्चा न करते हुए मात्र श्वेताम्बर सम्प्रदाय में समय-समय पर उत्पन्न एवं विकसित हुए विभिन्न गच्छों की चर्चा प्रस्तुत की गयी है। उत्तर और पश्चिम भारत का श्वेताम्बर संघ प्रारम्भ में तो वारणगण, मानवगण, उत्तरवल्लिसहगण आदि अनेक गणों और उनकी कुल-शाखाओं में विभक्त था, किन्तु कालान्तर में कोटिक गण को छोड़कर शेष सभी कुल और शाखायें समाप्त हो गयीं। आज के श्वेताम्बर मुनिजन स्वयं को इसी कोटिकगण से सम्बद्ध मानते हैं। इस गण से भी अनेक शाखायें अस्तित्व में आयीं। उनमें उच्चनागरी, विद्याधरी, वजी, माध्यमिका, नागिल, पद्मा, जयंति आदि शाखायें प्रमुख रूप से प्रचलित रहीं। इन्हीं से आगे चलकर नागेन्द्र, निवृत्ति, चन्द्र और विद्याधर ये चार कुल अस्तित्त्व में आये। पूर्व मध्ययुगीन श्वेताम्बर गच्छों का इन्हीं से प्रादुर्भाव हुआ। ईस्वी सन की छठी-सातवीं शताब्दी से ही श्वेताम्बर श्रमण परम्परा को पश्चिमी भारत [गुजरात और राजस्थान में राजाश्रय प्राप्त होने से इसका विशेष प्रचार-प्रसार हुआ, फलस्वरूप वहाँ अनेक नये-नये जिनालयों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012052
Book TitleShwetambar Sthanakvasi Jain Sabha Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages176
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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