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कुछ इधर उधर की
एक घटना है, आप उन दिनों लुधियाना में विराजमान थे। आप के पास श्रेष्ठ गुरुभाई श्री मूलचंदजी महाराजद्वारा भेजे गए दो सजन आये । उन लोगों की इच्छा दीक्षित होने की थी।
महाराज साहब ने उन दोनों गृहस्थों को अपने पास रखा, उन दिनों आपश्री कुछ अस्वस्थ थे । वे दोनों सज्जन दूसरे ही दिन दीक्षा का मुहूर्त बतला रहे थे और हठ भी कर रहे थे । उन्हें आप के शिष्य ने अन्यत्र संयम दे दिया ।
देववशात् अहमदाबाद के सुप्रसिद्ध सेठ श्री दलपतभाई भगुभाई का आपश्री को पत्र मिला "ध्रांगध्रावाले जो दो आदमी आप की सेवा में आए है, उन्हें दीक्षा देनी उचित नहीं । " किन्तु अब क्या हो सकता था ?
महाराजश्री को दुःख हुआ और काफी संकोच भी हुआ। इसी संकोच के कारण आप ने उक्त सेठ को कई मास तक पत्र तक भी नहीं लिखा ।
लगभग ६ मास वीतने पर आप ने एक पत्र इस आशय का सेठजी के नाम लिखा था ।
“दीक्षा हो चुकने पर आप का पत्र मिला, दुःख है, मैं इसी (१) संकोच के मारे आप को पत्र भी न लिख सका । "......इत्यादि ।
शालीनता तथा समय आने पर व्यर्थ के वादविवाद को स्थान न देकर भूल मान लेना! क्या दीक्षा देनी भूल थी! नहीं, किन्तु एक श्रावक की राय न होने पर भी दीक्षा देना अयोग्य है, इस बात का ध्यान आप को सब से बड़ा था।
क्या आप और कुछ बहाना नही बना सकते थे ? किन्तु नहीं, आप ने संघ आज्ञा को प्राधान्य दिया था । वर्तमान दीक्षा के लिए शिष्यों की खोज करनेवाले साधु वर्ग को कुछ शिक्षा लेनी चाहिए । संघ की आज्ञा आदि बातों में कैसा अनुकरणीय आदर्श है।
आप के शिष्य श्री मुनि श्री लक्ष्मी विजयजी महाराज (स्थानकवासी दशा में श्री विशनचंदजी महाराज) जीरा, जिला फिरोजपुर (पंजाब) में आप के साथ विराजमान थे।
[श्री आत्मारामजी
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