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(ले० श्रीयुत शशिभूषण शास्त्री, संस्कृत अध्यापक श्री आत्मानंद जैन हाईस्कुल-अंबालाशहर
__ भारतवर्ष की १८ वीं सदी के सुधारकों की जीवनियों पर जब हम विचार करते हैं तो न्यायाम्भोनिधि श्रीमद्विजयानन्दसूरि ( आत्माराम ) महाराज का जीवन, उनके विचार तथा आचरण बहुत उच्च दिखाई देते हैं । आप की गणना उन सुधारकों में नहीं की जा सकती जो कि एक विशेष संप्रदाय के प्रवर्तक होते हैं । जिन का लक्ष्य केवल उदार धर्म को किसी एक सम्प्रदाय की संकुचित परिधि में जकड़ देना होता है । आचार्यदेव श्री आत्मारामजी महाराज एक युगप्रवर्तक महापुरुष थे। साम्प्रदायिक संकीर्ण विचार आप के विशाल हृदय में वास न करते थे। आप पंचमहाव्रतधारी साधु समुदाय के मुकुटमणि थे। आप का उद्देश्य जीवमात्र का कल्याण करना था । सार्वभौम जैन धर्म की शिराओं को समस्त संसार में प्रचारित करना ही आप अपना ध्येय समझते थे ।
आचार्यदेव का स्थान संसार के सुधारकों में कौन-सा था, इस को हम दृष्टांत से स्पष्ट करते हैं:
एक वार दो मुसाफिर एक ही मार्ग पर चले जा रहे थे । एक चौराहे में पहुंचकर उन को भ्रम हुआ कि किधर जायें । वहां उन्हें एक सज्जन मिला । उन्हों ने सज्जन से पूछा" महाशय, मोक्षनगरी का मार्ग कौन-सा है ?” उस सज्जन ने मार्ग का पूरा और पक्का पत्ता बताने के लिये भूमि पर कुछ रेखायें खींच कर एक नकशा बना दिया और समझा दिया कि इस मार्ग पर चल कर ही वे मोक्षनगरी को पहुंच जायेंगे । मुसाफिर चल दिये। उन में एक मुसाफिर तो सज्जन की बताई हुई दिशा पर चलने लगा, पर दूसरा भूमि पर बने हुए नकशे पर ही खड़ा हो गया और उस की रेखाओं पर ही घूमने लगा। इसप्रकार पहला मुसाफिर अपने लक्ष्य पर पहुंच गया पर दूसरा पगभर आगे नहीं बढ़ा, और उस ने अपने को उसी स्थान पर पाया। शताब्दि ग्रंथ ]
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