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________________ है। अर्थात् हे पुरुष। जिसे तू मारने की इच्छा करता है, विचार अर्थात् आत्मा ही सुख और दुःख की उत्पन्न करने वाली कर वह तू ही है- तेरे जैसा ही सुख-दु:ख का अनुभव करने और न करने वाली हैं। आत्मा ही सदाचार से मित्र और दुराचार वाला प्राणी है, जिस पर तू हुकूमत करने की इच्छा करता है, से शत्रु है। अपनी आत्मा को जीतना ही सबसे कठिन कार्य हैविचारकर वह तेरे जैसा ही प्राणी है, जिसे परिताप-दुःख देने "जे सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे। योग्य समझता है, चिन्तन कर वह तेरे जैसा ही प्राणी है, जिसे तू एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ।" वश में करने की इच्छा करता है, जरा सोच तेरे जैसा ही प्राणी अर्थात् दुर्जय संग्राम में सहस्र-सहस्र शत्रुओं को जीतने की है, जिसके तू प्राण लेने की इच्छा करता है, विचार कर वह तेरे अपेक्षा एक अपनी आत्मा को जीतना परम जय है- महान् विजय जैसा ही प्राणी है। है। जो अपनी आत्मा को जीत लेता है, वही सच्चा संग्राम विजेता सत्पुरुष इसी तरह विवेक रखता हुआ जीवन बिताता है। वह न स्वयं किसी का हनन करता है और न औरों द्वारा किसी आत्मा पर विजय प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि का हनन करवाता है। चार कषायों पर विजय प्राप्त की जाय। आत्म-विजय का सुन्दर भगवान महावीर ने अहिंसा को धर्म के लक्षणों में सर्वप्रथम विश्लेषण निम्न सूत्र में उपलब्ध हैस्थान दिया। दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है- धर्म उत्कृष्ट मंगल है। अहिंसा, संयम और तप उसके लक्षण हैं। जिसका मन "एगे जिए जिया पंच, पंच जिए जिया दस। सदा धर्म में रमता रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। दसहा उ जिणित्ताणं, सव्वसत्तू जिणामहं।।" __ प्रत्येक जैन श्रावक को पाँच महाव्रतों- अहिंसा, सत्य, -उत्तराध्ययन सूत्र २३/३६ अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह का आजीवन पूर्णतया पालन अर्थात् एक को जीत लेने पर मैंने पाँच को जीत लिया, करना आवश्यक है। इन सब में अहिंसा का प्रथम स्थान है। पांच को जीत लेने से मैने दस को जीत लिया और दसों को जीत सत्यादि दूसरे गुण अहिंसा के पोषक व रक्षक हैं। लेने पर मैंने सभी शत्रुओं को जीत लिया है। मनुष्य को चार विश्व में अशान्ति का पहला कारण हिंसा की भावना है, कषायों पर कैसे विजय प्राप्त करनी चाहियेजिसके निराकरण के लिए अहिंसा की भावना को व्यवहार में "उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे। लाना अति आवश्यक है। विश्व में अशांति का दूसरा बड़ा मायं अज्जुवभावेणं, लोभं संतोषओ जिणे।।" कारण है- मनुष्य का अपने आत्मत्त्व का विस्मरण। संसार में -दशवैकालिक सूत्र ८/३९ जितने भी तत्व हैं, उन्हें तीन भागों में विभक्त किया गया है अर्थात् क्रोध को उपशम-शान्ति से (क्षमा से), मान को हेय, ज्ञेय, और उपादेय, तत्व कुल नौ हैं। इनमें जीव (आत्मतत्व) मार्दव-मृदुला से, माया को ऋजुभाव-सरलता से और लोभ को मुख्य है। जीव, अजीव व पुण्य का ज्ञेय, पाप, आश्रव व बंध संतोष से जीतें। को हेय तथा संवर, निर्जरा व बंध को उपादेय कहा है। इन कषायों के कारण सद्गुणों का विनाश होता है, यथाजीव (आत्मा) को कर्मों का कर्ता माना गया है। 'द्वादशांग "कोहो पीइं पणोसेइ, माणो विणय नासणो। अनुप्रेक्षा' में कहा है कि आत्मा उत्तम गुणों का आश्रय है, समग्र माया मित्ताणि नासेइ, लोहो सव्व विणासणो।।" द्रव्यों में उत्तम द्रव्य है और सब तत्वों में परम तत्व है। आत्मा तीन प्रकार की है- बहिरात्मा, अंतरात्मा ओर परमात्मा। अर्थात् क्रोध प्रीति को नष्ट करता है, मान विनय को नष्ट आत्मा और शरीर पृथक-पृथक हैं। आत्मा अविनाशी तत्व। करता है, माया धूर्तता (जालसाजी) मैत्री को नष्ट करती है और है। शरीर विनाशी-विनष्ट होने वाला तत्व है। इसीलिए इसे ' लोभ सब कुछ नष्ट कर देता है। पुद्गल कहा गया है। आत्मा को कैसे जाना जा सकता है? भगवान महावीर ने कहा कि संसार के प्राणियों के लिए इसका उत्तर आचार्य कुंदकुंद ने 'समयसार की गाथा' २९६ में चार बातें बहुत दुर्लभ हैंदिया है। वहाँ पर कहा गया है कि आत्मा को आत्मप्रज्ञा अर्थात् "चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जंतुणो। भेदविज्ञान रूप बुद्धि द्वारा ही जाना जा सकता है। माणुसत्तं सुई सद्धा, संजममि य वीरियं।।" आत्मा के बारे में महावीर ने कहा अर्थात् संसार के प्राणियों को चार परम अंग-उत्तम "अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। संयोग-अत्यंत दुर्लभ हैं-(१) मनुष्य-भव, (२) धर्म-श्रुति (धर्म अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय-सुपट्टिओ।" का सुनना) धर्म में श्रद्धा और (४) संयम में (धर्म में) वीर्य -उत्तराध्ययन सूत्र २०/३ पराक्रम। ० अष्टदशी / 2080 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012049
Book TitleAshtdashi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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