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________________ सेवारत रहे। उन्होंने न विवाह किया और न ही वे धन उपार्जन कृष्णदास जी ने लगभग २५० पदों की रचना की है। हेतु सक्रिय हुए। इनकी भक्ति विषयक रचनाओं की प्रभविष्णुता गुजराती होने के बावजूद ब्रजभाषा में रचित पदों में राधाकृष्ण से प्रभावित होकर कई विद्वान इन्हें अष्टछाप के कवियों में प्रेम वर्णन, श्रृंगार तथा रूप सौन्दर्य का सुन्दर अंकन है। इनकी सूरदास एवं नन्ददास के उपरान्त परिगणित करते हैं। इनके पदों रचनाओं में काव्य कौशल अपेक्षाकृत कम है। सं० १६३८ के का संग्रह ‘परमानन्द सागर' के नाम से प्रकाशित है जिसमें आसपास (१५८१ ई.) इनकी मृत्यु कुएँ में गिरने से हुई थी। लगभग दो हजार पद संग्रहीत है। अन्य प्रमुख कृतियां हैं- 'दान कृष्णदास विरचित पद : लीला', 'ध्रुव चरित्र' 'परमानन्ददासजी के पद'। मेरौ तौ गिरिधर ही गुनगान। बाल-लीला, माधुरी लीला, वियोग शृंगार, मान, नखशिख यह मूरत खेलत नैनन में, यही हृदय में ध्यान।। वर्णन आदि का वर्णन करने में इन्हें विशेष सफलता प्राप्त हुई चरण रेनु चाहत मन मेरौ, यही दीजिए दान। है। भाषा, भाव तथा अलंकार की दृष्टि से इनकी रचनाएँ 'कृष्णदास' को जीवन गिरिधर, मंगल रूप निधान।। विमुग्धकारी हैं। रचनाओं की गेयता पदों के सौन्दर्य को बढ़ा देती नन्ददास (१५३३ ई०- १५८३ ई०) : अष्टछाप आठ हैं। सं० १६४० वि० (१५८३ ई०) के लगभग इनका कवियों में वय की दृष्टि से नन्ददास सबसे छोटे हैं, परन्तु काव्यगोलोकवास हुआ था। कहा जाता है कि जन्माष्टमी के दिन साधना, भाषिक-छटा और बहुमुखी प्रतिमा के कारण इनका आनन्दातिरेक में नृत्य करते हुए ही इनकी मृत्यु हुई थी। स्थान सूरदास को छोड़कर सर्वोच्च है। नन्ददास का जन्म सं० परमानन्ददासजी का एक पद : १५९० वि० (१५३३ई०) में सोरों के निकट रामपुर ग्राम में प्रीति तो नन्द नन्दन सों कीजै। हुआ था। कुछ लोग इन्हें गोस्वामी तुलसीदास का भाई स्वीकार सम्पति विपति परे प्रतिपालै कृपा करै तो जीजै।। करते हैं। कहा जाता है कि गो० बिट्ठलनाथ से शिष्य के रूप परम उदार चतुर चिन्तामणि सेवा सुमिरन माने। में दीक्षित होने के पूर्व नन्ददास घोर संसारी, लौकिक व्यक्ति थे। चरन कमल की छाया राखे अंतरगति की जानै।। गुरु कृपा से वे भगवद्भक्त बने। बेद पुरान भागवत भाषै, कियो भक्त को भायो। अद्भुत प्रतिभा सम्पन्न नंददासजी ने लगभग १५ ग्रंथों की 'परमानन्द' इन्द्र को वैभव विप्र सुदामा पायो।। रचना की है। इन ग्रन्थों में प्रमुख हैं- अनेकार्थ मंजरी, मान कृष्णदास (१४९५ ई० - १५८१ ई०) मंजरी, रस मंजरी, रूप मंजरी, विरह मंजरी, प्रेम बारह खड़ी, .. महाप्रभु वल्लभाचार्य के शिष्यों में कृष्णदास की प्रसिद्धि कवि श्याम सगाई, सुदामा चरित ,भँवरगीत, रास पंचाध्यायी, सिद्धांत गायक की अपेक्षा व्यवस्थापक एवं दक्ष प्रबंधक की है। १३ वर्ष पंचाध्यायी, गोवर्द्धन लीला, नंददास पदावली। 'अनेकार्थ मंजरी' की उम्र मे अपने जन्म स्थान गुजरात से ब्रज में आए कृष्णदास पर्याय कोश है। 'विरह मंजरी' में विरह का अत्यंत भावपूर्ण जी का जीवन वल्लभाचार्यजी से दीक्षा लेने के उपरान्त कृष्णभक्ति वर्णन किया गया है। 'रस मंजरी' में नायिका भेद विवेचन के की ओर उन्मुख हो गया था। गुजरात के राजनगर (अहमदाबाद) साथ नारी चेष्टाओं का चित्रण है। यह रचना श्रृंगार की कोटि में के चिलोतरा ग्राम में एक शद्र परिवार में सं० १५२२ वि० आती है। 'भँवरगीत' में नंददास की गोपिकाओं की तार्किकता (१४९५ ई.) में कष्णदास का जन्म हुआ था। इनके पिता तथा विवेक दृष्टि पाठकों को विमुग्ध करती है। इस कृति के अनैतिक ढंग से धनोपार्जन करते थे। जिससे क्षुब्ध होकर कृष्णदास कारण नंददास को विशेष ख्यातिप्राप्त है। 'रास पंचाध्यायी' में ने घर छोड़ दिया और वल्लभाचार्य की शरण में आ गए। कृष्ण की रासलीला से संबद्ध रचनाएँ है। ___ अपनी व्यावहारिक बुद्धि तथा प्रबंध कौशल से इन्होंने नंददास का रचना वैविध्य यह प्रमाणित करता है कि उन्होंने वल्लभाचार्य को प्रभावित किया फलतः आचार्यजी ने इन्हें गंभीर शास्त्रानुशीलन किया था। भावपक्ष तथा कलापक्ष का श्रीनाथ मन्दिर का अधिकारी नियुक्त कर दिया। संभवत: इसी उत्कर्ष उनकी काव्य-सामर्थ्य को प्रमाणित करता है। संभवत: कारण इनका नाम कृष्णदास अधिकारी प्रचलित हो गया। इसीलिए नंददास के बारे में यह उक्ति प्रचलित है। श्रीनाथजी के मन्दिर को नवीन रूप प्रदान करने तथा उसे वैभव और कवि गढ़िया, नंददास जड़िया' सम्पन्न करने में इनका विशिष्ट अवदान था। मन्दिर से बंगाली परिमार्जित भाषा, संगीत मर्मज्ञता तथा काव्य सौष्ठव उन्हें पजारियों को अपदस्थ करने में भी इनका युक्ति सफल रही थी। उच्च कोटि का रचनाकार सिद्ध करती है। सं० १६४० कहा जाता है कि इनका गुप्त संबंध गंगाबाई नामक स्त्री से था (१५८३ ई०) को मानसी गंगा के तट पर इनका देहावसान हुआ जिसके कारण विट्ठलाथजी से इनका मनमुटाव हुआ था। था। ० अष्टदशी / 1950 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.012049
Book TitleAshtdashi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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