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________________ परिभाषित करते हुए गाँधी ने कहा है- "मैं मानता हूँ कि कोई हस्तकर्म से विद्यार्थी कुछ आय भी अर्जित करता है जिससे भी पद्धति जो शैक्षणिक दृष्टि से सही हो और जो अच्छी तरह शिक्षा शुल्क में भी आंशिक स्वावलम्बन हो पाता है। से चलाई जाए, आर्थिक दृष्टि से भी उपयोगी सिद्ध होगी। शिक्षा-दर्शन का प्रयोजन स्पष्ट करते हुए गाँधी ने कहा उदाहरण के लिए हम अपने बच्चों को मिट्टी के खिलौने बनाने है- हमारे जैसे गरीब देश में हाथ की तालीम जारी रखने से दो भी सिखा सकते हैं, जो बाद में तोड़ कर फेंक दिए जाते हैं। हेत सिद्ध होंगे। उससे हमारे बालकों की शिक्षा का खर्च निकल इससे भी उनकी बुद्धि का विकास होता है, लेकिन इसमें नैतिक आएगा और वे ऐसा धंधा सीख लेंगे जिसका अगर वे चाहे तो सिद्धान्त की उपेक्षा होती है कि मनुष्य के श्रम, साधन तथा सामग्री उत्तर-जीवन में अपनी जीविका के लिए उपयोग कर सकेंगे तथा का अपव्यय कदापि नहीं होना चाहिये। उनका अनुत्पादक आत्मनिर्भर बन सकेंगे। राष्ट को कोई चीज इतना कमजोर नहीं उपयोग कभी नहीं करना चाहिये। अपने जीवन के प्रत्येक क्षण बनाएगी जितनी यह बात कि श्रम का तिरस्कार करना सीखें। का सदुपयोग होना चाहिये, इस सिद्धान्त के पालन का आग्रह साथ ही गांधी यह भी कहते हैं कि मैं उच्च शिक्षा का दुश्मन नहीं नागरिकता के गुण का विकास करने वाली सर्वोत्तम शिक्षा, साथ हैं। मेरी योजना में तो अधिक से अधिक सन्दर से सन्दर ही इससे बुनियादी तालीम स्वावलम्बी भी बनाती है।"१। पुस्तकालय, प्रयोगशालाएँ और शोध संस्थान रहेंगे। उनसे जो बुनियादी शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान मिलेगा वह जनता की संपत्ति होगी और जनता को उसका बुनियादी शिक्षा के उद्देश्य को बताते हुए गांधी ने कहा लाभ मिलेगा। वस्तुत: मैं उच्च शिक्षा में क्रान्तिकारी परिवर्तन है कि 'बुनियादी शिक्षा की मंशा यह है कि गांव के बच्चों को लाकर उसे राष्ट्रीय आकांक्षाओं और आवश्यकताओं से जोड़ना सुधार-संवार कर उन्हें गांव का आदर्श वाशिन्दा बनाया जाए, चाहता हूँ। मैं यह मानता हूँ कि शिक्षा की इस पद्धति से व्यक्ति इसकी योजना खासकर उन्हीं को ध्यान में रखकर की गई है। का सबसे अधिक मानसिक एवं अध्यात्मिक विकास हो सकता इस योजना की भी असल प्रेरणा गांव से मिली है। जो कांग्रेसजन है।" स्वराज की इमारत को बिल्कुल उसकी नीवं या बुनियाद से बालकों को किसी न किसी जीविका के लिए अवश्य ही चुनना चाहते हैं, वे देश के बच्चों की उपेक्षा कर ही नहीं सकते। प्रशिक्षित करना चाहिये। उसी को ध्यान में रखकर उसके शरीर, प्रथमत: प्राथमिक शिक्षा में गांवों में बसने वाली हिन्दुस्तान की मस्तिष्क, हृदय आदि की शक्तियों का भी विकास करना जरुरतों और गांवों का जरा भी विचार नहीं किया गया है और चाहिये। इस प्रकार वह अपने व्यवसाय में दक्षता प्राप्त कर वैसे देखा जाए तो उसमें शहरों का भी कोई विचार नहीं हुआ लेगा। है। नगर और गाँव दोनों के लिए बुनियादी शिक्षा की तालिम बुनियादी शिक्षा में नागरिकता पर विशेष बल दिया गया आवश्यक है- बुनियादी तालीम हिन्दुस्तान के तमाम बच्चों को, है। इस शिक्षा के माध्यम से भावी नागरिकों में आत्मसम्मान, फिर वे गांव के रहने वाले हों या शहरों के, हिन्दुस्तान के सभी मर्यादा एवं दक्षता के भाव भरने की व्यवस्था की गई है। बालक श्रेष्ठ और स्थायी तत्वों के साथ जोड़ देती है। यह तालीम बालक । अपने को राष्ट्र का एक प्रमुख अंग समझकर राष्ट्र निर्माण की के मन एवं शरीर दोनों का विकास करती है, बालक को अपने दिशा में कार्य करे। बुनियादी शिक्षा व्यवस्था एक वर्गहीन वतन के साथ जोड़े रखती है, उसे अपने और देश के भविष्य शिक्षा-व्यवस्था है जिसमें नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास की का गौरवपूर्ण चित्र दिखाती है और उस चित्र में देखते हुए भविष्य । क्षमता का विकास होता है। इसका पाठ्यक्रम ऐसा है जिससे के हिन्दुस्तान का निर्माण करने में बालक या बालिका अपने व्यक्ति के मानसिक, शारीरिक व आत्मिक विकास की ओर स्कल जाने के दिन से ही हाथ बटाने लगे, इसका इन्तजाम करती पर्ण ध्यान दिया जा सके। शिक्षा द्वारा बालकों में कर्तव्यपरायणता के भाव विकसित करने पर बल दिया जाता है। गांधी कार्य के द्वारा शिक्षण पर विशेष जोर देते थे। पाठ्यक्रम की रूपरेखा : उनका मानना था कि 'मस्तिष्क सच्ची शिक्षा के लिए शारीरिक गांधी ने बुनियादी शिक्षा-व्यवस्था की संरचना सामाजिक अवयवों का समुचित उपयोग आवश्यक है। शारीरिक शक्ति परिस्थतिायें के अनुरूप की है। बुनियादी शिल्प-इसके अन्तर्गत एवं कर्मेन्द्रियों के बुद्धिपूर्वक उपयोग से सुन्दर से सुन्दर और कृषि, कताई-बुनाई, लकड़ी का कार्य, मिट्टी का कार्य, बागवानी शीघ्र से शीघ्र मानसिक विकास संभव हो सकता है। किसी एवं स्थानीय एवं भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप कोई भी हस्तकर्म से शिक्षण को जोड़ देने से विद्यार्थी शरीर से समर्थ, शिल्प रखा गया है। बालक इसमें से किसी एक शिल्प का चयन बुद्धि से सजग और आत्मविश्वास से परिपूर्ण होता है। फिर ० अष्टदशी /1780 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012049
Book TitleAshtdashi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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