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बनेचन्द मालू
जन्म स्थान से श्मशान तक का छोटा सा सफर ।
इसे भी तय करने में न जाने,
आदमी को कितने लगाने पड़ते हैं चक्कर ।
जीवन का सफर
( आत्मा और मन का संवाद)
मैं तो जन्मते ही बोला
चलो छोटा सा रास्ता है कर लें जल्दी से पार ।
जवाब मिला बस अभी ?
अभी तो आये ही हो,
अभी तो कुछ देखा ही नहीं है संसार
।
मैंने कहा- संसार ?
मैं तो जाने के लिए आया हूँ।
थोड़ी सी साधना करूं और हो जाऊँ पार
क्योंकि संसार तो है एकदम असार ।
बोला धतेरे की।
किसने भर दिया यह विचार ?
बिना देखे कैसे जानोगे ?
खुद देख लो तो मेरी बात मानोगे।
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बोला- बड़ा मधुर होता है बचपन । भोला-भाला, छलकपट रहित मन । आसपास की घटनाओं में बेखबर । हंसते-खेलते पता नहीं कब बीत जाएगा यह सफर ।
मैंने पूछा- फिर?
बोला बचपन में ही मत हो जाओ थिर । आगे चलो।
यह किशोरावस्था है।
कितनी सुन्दर व्यवस्था है।
घर की जिम्मेदारी से मुक्त। हरदम खेलने-कूदने को उन्मुक्त, खाओ पीओ और मौज करो।
ऐसी जिन्दगी से क्यों डरो ? मैनें पूछा-आगे?
बोला क्या जल्दी है
क्यों जाते हो भागे ?
अभी तो नशीली जवानी आई है.
हर घड़ी रंगीली रसीली बातें सुहाई है। आगे की मत सोचो
वह सब करते रहो जो मन भाए । जवानी में तो होता ही ऐसा है, कोई मस्ती में नाचे,
तो कोई रोमांटिक गाना गाये ।
पता नहीं लगता समय कैसे बीत जाये ।
मैंने कहा- अच्छा! तो उसके बाद ? बोला धीरज रखो।
अभी तो आयेगा जीवन का असली स्वाद । अब तक पूरी घर गृहस्थी बस जायेगी ।
बेटियां ब्याह कर चली जायेंगी,
बेटे ब्याहेंगे बहुएं आयेंगी,
पोते होंगे पोतियां होंगी, दोहिते होंगे, दोहितियां होंगी।
पूरी फौज इकट्ठी हो जायेगी । भरे पूरे परिवार में पता ही नहीं चलेगा। प्रौढ़ावस्था कब गुजर जायेगी।
छ अष्टदशी / 169
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