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________________ बनेचन्द मालू जन्म स्थान से श्मशान तक का छोटा सा सफर । इसे भी तय करने में न जाने, आदमी को कितने लगाने पड़ते हैं चक्कर । जीवन का सफर ( आत्मा और मन का संवाद) मैं तो जन्मते ही बोला चलो छोटा सा रास्ता है कर लें जल्दी से पार । जवाब मिला बस अभी ? अभी तो आये ही हो, अभी तो कुछ देखा ही नहीं है संसार । मैंने कहा- संसार ? मैं तो जाने के लिए आया हूँ। थोड़ी सी साधना करूं और हो जाऊँ पार क्योंकि संसार तो है एकदम असार । बोला धतेरे की। किसने भर दिया यह विचार ? बिना देखे कैसे जानोगे ? खुद देख लो तो मेरी बात मानोगे। Jain Education International बोला- बड़ा मधुर होता है बचपन । भोला-भाला, छलकपट रहित मन । आसपास की घटनाओं में बेखबर । हंसते-खेलते पता नहीं कब बीत जाएगा यह सफर । मैंने पूछा- फिर? बोला बचपन में ही मत हो जाओ थिर । आगे चलो। यह किशोरावस्था है। कितनी सुन्दर व्यवस्था है। घर की जिम्मेदारी से मुक्त। हरदम खेलने-कूदने को उन्मुक्त, खाओ पीओ और मौज करो। ऐसी जिन्दगी से क्यों डरो ? मैनें पूछा-आगे? बोला क्या जल्दी है क्यों जाते हो भागे ? अभी तो नशीली जवानी आई है. हर घड़ी रंगीली रसीली बातें सुहाई है। आगे की मत सोचो वह सब करते रहो जो मन भाए । जवानी में तो होता ही ऐसा है, कोई मस्ती में नाचे, तो कोई रोमांटिक गाना गाये । पता नहीं लगता समय कैसे बीत जाये । मैंने कहा- अच्छा! तो उसके बाद ? बोला धीरज रखो। अभी तो आयेगा जीवन का असली स्वाद । अब तक पूरी घर गृहस्थी बस जायेगी । बेटियां ब्याह कर चली जायेंगी, बेटे ब्याहेंगे बहुएं आयेंगी, पोते होंगे पोतियां होंगी, दोहिते होंगे, दोहितियां होंगी। पूरी फौज इकट्ठी हो जायेगी । भरे पूरे परिवार में पता ही नहीं चलेगा। प्रौढ़ावस्था कब गुजर जायेगी। छ अष्टदशी / 169 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012049
Book TitleAshtdashi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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