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________________ संक्षेप में गीता का सार यह है। अपने कर्तव्य कर्म को कभी अपनी दिव्य श्रवण शक्ति से सुना, तो वह विह्वल हो उठा और न छोड़। लगन से अपने स्वधर्म का आचरण करता जा। शुभ धृतराष्ट्र से कहने लगा, "राजन, इस अद्भुत पुण्य संवाद को हेतु से सब प्राणियों की सेवा के लिए ही कर्मकर। फल के पीछे सुनकर मैं गद्गद् हो रहा हूँ और उसे याद करके और भगवान मत छोड़। इंद्रियों के भोगों से विरक्त हो। मन और बुद्धि पर के अद्भुत स्वरूप को स्मरण करके मुझे महान विस्मय हो रहा निग्रह रख। भगवान में भरोसा रख। जो कर्म करे, वह उसी को है, और बार-बार हर्ष हो रहा है, हे राजन् मेरा निश्चय सुनोअर्पण कर अहर्निश उस प्रभु का स्मरण कर। ईश्वर में और जहँ कर्मयोगी योगेश्वर कृष्ण के रूप में कोई भी कर्मयोगी है, तुममें कोई भेद नहीं है, क्योंकि तुम्हारे में और अन्य भूतों में सब जहाँ अर्जुन के रूप में लगन वाला परिश्रमी कोई भी उद्योगी वही एक सत्ता व्यापक होकर स्थित है। इसी तरह तुम भी सभी ___ साधक है वहाँ निश्चय ही श्री है, विभूति है, विजय है और आनंद . में स्थित हो। इसलिए जो ब्रह्म है वह ही तुम हो। तुम भी ब्रह्म है। यह मेरा निश्चित मत जान लो।" हो। द्वंद्वों से मुक्त रहो, सुख-दु:ख व मान-अपमान को समान 'कृष्ण बंदे जगत कुहम्' समझो। चिंता छोड़ दो। उसका ध्यान अर्थात् सब प्राणियों में जो घनश्यामदास बिड़ला से साभार वह स्थित है उसी ईश्वर का ध्यान करो। इसका तात्पर्य यह है कि सब प्राणियों का ध्यान अर्थात् उनके हित के लिए ही कर्म करो। "आदम खुदा नहीं, पर आदम खुदा से जुदा नहीं'- यह विश्व यही विराट् स्वरूप है। यही विश्व दर्शन है, ईश्वर-दर्शन भी यह ही है। तू भी वही है- “तत्वमसि।' जनक इत्यादि राज करते हुए, कर्म करते हुए भी अनासक्त रहे। धर्म, व्याध और तुलाधार भी कर्मों में अनासक्त थे। उन्हीं का अनुकरण करो। भगवान अपनी रचित सृष्टि और संसार के झंझटों में रमते हुए भी कमल जैसे जल में अलिप्त रहता है वैसे ही अलिप्त रहते हैं। तुम भी वैसा ही आचरण करो। इतना कहने के पश्चात् भी अंत में जो तुम्हारी इच्छा हो सो करो। ___इस पर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा, "मैं स्वस्थ हूँ। अब आप जो कहोगे वही करूँगा।" यह गीता का सार है। हरेक अध्याय में विचरण करते हुए हम यह देखेंगे कि जो उपरोक्त सार बताया है उसी की सारी गीता में पुनरावृत्ति है। समुद्र का सारा जल, उसकी तरंगे, उसकी बूंदे एक ही प्रभु की सत्ता का चित्र है। एक ही शक्ति विश्व में व्याप्त है। द्वैत को कोई स्थान नहीं। 'अहं ब्रह्मास्मि' या 'तत्त्वमसि' का भी अर्थ यही है। व्यासजी की कृपा से संजय को महाभारत युद्ध देखने के लिए दिव्य-दृष्टि और सुनने के लिए दिव्य श्रवण शक्ति मिल भी गयी थी। इसलिए वह दूर बैठा-बैठा भी युद्ध की सारी क्रियाएँ देखता रहता था, और वहाँ जो कुछ होता था उसे सुनता भी रहता था। यह सब देख और सुनकर सारा विवरण धृतराष्ट्र को सुनाता रहता था। उसने जब कृष्ण अर्जुन के इस अद्भुत वार्तालाप को ० अष्टदशी / 1670 Jain Education International For Private &Personal Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.012049
Book TitleAshtdashi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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