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________________ अनंतानुबंधी कषाय से नर्क, अप्रत्याख्यानी से तिर्यंच, में जब अल्फा तरंग का अनुभव होता है तब व्यक्ति का मन प्रत्याख्यानी से मनुष्य तथा संज्ज्वलन कषाय से देवगति का बंध संतुलित हो जाता है। क्रोध की तीव्रता को नियंत्रित करने के हो होता है। लिए मन की मनोवृत्तियों का समीक्षण बड़ा उपयोगी है। साधक कषायों पर नियंत्रण - समीक्षण ध्यान साधना द्वारा प्रत्येक चिंतन करें कि क्रोध क्यों उत्पन्न होता है? क्रोध की अवस्था में कषाय पर नियंत्रण कर सकते हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ क्या क्षतियां होती है अत: समीक्षण विधि से क्रोध का विश्लेषण के कषायों पर नियंत्रण निम्न प्रकार से किया जा सकता है - करते रहना चाहिए। समीक्षण ध्यान एवं समतामय आचरण के क्रोध - क्रोध की वृत्ति प्रमुख कषाय है जो प्रत्येक मनुष्य में बल पर साधक अपनी साधना के अनुरूप क्रोध के दृष्टा के रुप कम अथवा ज्यादा अवश्य पाया जाता है। क्रोध एक में 'कोह दंसी' होगा। जब क्रोध को देखने की क्षमता जागृत हो ज्वालामुखी है जो अनंत-अनंत जन्मों तक विस्फोट के रूप में जायेगी तब वह क्रोध रूप कार्य की जो समर्थ कारण सामग्री अभिव्यक्त होता है। जैन आगमों में कहा गया है 'कंद्रो.... होती है उसका भी समीक्षण कर लेगा। सच्चं सीलं विणयं हणेज्ज' अर्थात् क्रोधान्ध व्यक्ति सत्य, मान - क्रोध समीक्षण की पहली सीढ़ी पर जब साधक का पांव शील और विनय का विनाश कर डालता है। जम जाय तब वह दूसरी सीढ़ी पर उतरने का उपक्रम करेगा। मनोविज्ञान के अनुसार क्रोध एक प्रकार का संक्रामक जब क्रोध समीक्षण की सम्पूर्ति होती है तब मान समीक्षण का पूर्व कीटाणु है जो अपने को ही नहीं आस-पास के वातावरण को भी प्रारम्भिक क्षण यही 'जे कोहो दंसी से माण दंसी' की सक्ति रूग्ण कर देता है। शरीर स्वास्थ्य की भाषा में अंतस्रावी ग्रंथियों का साधना-पथ है। के स्रावों का असंतुलन क्रोध को जन्म देता है। क्रोध आने का मान आत्मा की विकृत वृति है। सहज स्वाभाविक चैतन्य जो केन्द्र है वह है हमारा मस्तिष्क। सारी प्रवृतियों का संचालन वृति को विभाव रूप विकृत बनाने वाले कर्म स्कन्ध जब मस्तिष्क के द्वारा होता है। अच्छी या बुरी सारी भावधारा अहंकार के रूप में परिणत होते हैं तब कर्म स्कन्धों को मान संज्ञा मस्तिष्क में पैदा हो रही है, क्रोध करना यह भाव भी मस्तिष्क से अभिहित किया जाता है। मान आत्मा के स्वाभाविक गुण से आ रहा है। दूसरे शब्दों में क्रोध का उद्दीपन भी होता है और _ नम्रता को कुण्ठित कर देता है। सत्तागत मान के स्कन्ध उदयगत नियमन भी होता है। होते हैं, उस समय उनका प्रभाव मन को प्रभावित करता है। क्रोध का कारण : इच्छा के विरुद्ध कार्य होना, स्वार्थ की पूर्ति बाहर कोई आधार न मिलने पर पुरुष अपने आप को अभिमानी न होना, शरीर में पित्त कफ की प्रधानता, मांसाहार भोजन, की अवस्था में अनुभव करता है। इसमें अपने आपको अधिक मानसिक असंतुलन, सहिष्णुता का अभाव, आग्रह का आधिक्य, मान लेने के कारण आगे के विकास का द्वार अवरुद्ध हो जाता एडिनल की अधिकता, प्रतिकल परिस्थितियां आदि। व्यक्ति है। ऐसी वृति के बनने पर मानस-तंत्र से भी वतियां जो क्रोध करके दूसरों का नुकसान करे या न करे लेकिन स्वयं का विकासोन्मुख थीं, वे ह्रासोन्मुख हो जाती हैं जिससे जीवन पर कितना बडा नकसान वह कर लेता है यह पता लगता है जब घातक असर होता है। मान-वृति एक मीठा जहर है क्योंकि यह स्वयं के द्वारा किये गये क्रोध के दुष्परिणाम को अक्रोध की हमारे शरीर और आत्मा को कलुषित करता है तथा हमें पता अवस्था में, क्रोध शांत होने पर देखता है। क्रोधी व्यक्ति स्वयं ।। भी नहीं चलता क्योंकि मान को अक्सर स्वाभिमान का चोला जलता है और आसपास के क्षेत्र को जलाकर राख कर देता है। पहनाकर रखते हैं। कहा है क्रोध बिच्छू के डंक के समान है तो क्रोध से हानियां - मान सांप के काटने के समान ज्यादा खतरनाक है। १. शारीरिक - श्वास तीव्र, पेप्टीक अल्सर, हृदय रोग, अहंकार के प्रकार - अहंकार अनेक प्रकार का होता है जैसे उच्च रक्त चाप, सिर दर्द, माइग्रेन दर्द, कोलस्ट्राल बढ़ जाना, रूपमद, जातिमद, कुलमद, ऐश्वर्यमद, बलमद, पद का मद, पाचन तंत्र मंद, नाड़ी व ग्रंथि तंत्र का असंतुलन। प्रतिष्ठा का मद और यहां तक कि ज्ञानियों को ज्ञान का और २. मानसिक - मन अशांत, मन की चंचलता बढ़ जाना, तपस्यियों को तप का भी मद हो जाता है। अत: समीक्षण ध्यानमानसिक शक्तियों का, स्मृति, कल्पना, चिन्तन आदि का ह्रास। साधना द्वारा का इन मदों से बचना चाहिए। ३. भावनात्मक एवं आध्यात्मिक - निषेधात्मक भाव, समीक्षण दृष्टि ऐसी आंतरिक दृष्टि है कि जिससे बाहरी सृजनात्मक क्षमता में कमी तथा अशुभ कर्मों का बंधन, चैतनिक तत्वों के अवलोकन के साथ-साथ आंतरिक तत्वों का भी विकास का रुक जाना तथा आत्मिक शक्ति का कमजोर होना। अवलोकन हो रहा है। भीतर के भी अन्य तत्वों के अतिरिक्त क्रोध मुक्ति का एक साधन है - समीक्षण ध्यान साधना। आत्मा का स्वाभाविक विकास, वैभाविक गुण जो अभिमान की समीक्षण ध्यान एक रूपान्तरण की प्रक्रिया है जिससे मस्तिष्क संज्ञा से अभिहित किया जाता है, भलीभांति दीखने लगता है साथ ही इनसे होने वाले आध्यात्मिक और मानसिक दुसाध्य रोग भी ० अष्टदशी / 1550 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012049
Book TitleAshtdashi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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