SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है कि वह उनके बराबर न बैठे, उनसे सटकर न बैठे, उनसे कभी विणय-मूलओ धम्मो - भी अपने आसन पर बैठे हुवे बात न करे, गुरु को कुछ पूछना जैन वांग्मय में विनय को विनम्रता से भिन्न अर्थ में आचार हो तो अपने स्थान से ही न पूछकर उनके समीप जाकर के अर्थ में भी प्रयुक्त किया गया है। ‘विणए दुविहे पण्णत्ते - विनम्रतापूर्वक पूछे तथा गुरु के बुलाने पर वह अपने आसन या आगार विणए य अणगारविणए य' में यह इसी अर्थ में प्रयुक्त शय्या पर से बैठे हुवे या लेटे हुवे ही उत्तर न दे अपितु विनम्र हआ है। उस अर्थ में जैन-धर्म को विनयमूलक अर्थात् भाव से उनके पास जाकर नतशिर होकर उनकी आज्ञा को ग्रहण चारित्रधारित माना गया है। इसमें चारित्र को प्रधानता देते हुए करे व उसका तत्परता से पालन करे। सम्यक्चारित्र के अभाव में मुक्ति की प्राप्ति असंभव मानी गई विनय से लाभ तथा अविनय से हानि - है। तप युक्त सम्यक्चारित्र से ही 'संवर' और 'निर्जरा' द्वारा शास्त्रकार आर्य सुधर्मा इस विषय पर अपने स्वानुभूत मोक्ष प्राप्ति संभव है, यह निर्विवाद है। सम्यक्चारित्र के अभाव विचारों को स्पष्टता से अभिव्यक्त करते हुए कहते हैं कि विनयी में तो 'आस्रव', 'बंध' व तज्जनित भव-भ्रमण ही हो सकता है. व गुरु के मनोनुकूल चलने वाला शिष्य क्रोधी व दुराश्रय गरु को मुक्ति नहीं। भी प्रसन्न कर लेता है जबकि अविनीत, आज्ञा में न रहने वाला तम्हा विणयमेसेज्जा - दुष्ट शिष्य मृदुस्वभाव वाले गुरु को भी क्रुद्ध कर देता है। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि जब तक गुरु शिष्य के शिष्य के विनय-भाव से प्रसन्न होकर संबुद्ध पूज्य आचार्य व्यवहार से प्रसन्न न हो तथा उसकी पात्रता के बारे में आश्वस्त उसे विपुल अर्थगंभीर श्रुत-ज्ञान प्रदान करते हैं जिससे उस शिष्य न हो, गुरु की दृष्टि में यदि वह अप्रामाणिक, अनैतिक व दुराचारी के सब संशय मिट जाते हैं तथा वह जन-जन में विश्रुत शास्त्रज्ञ है तो चाहते हुए भी वे शिष्य को अपना वह सब ज्ञान व के रूप में सम्मानित होता है, देव, गंधर्व व मनुष्यों से पूजित होता आशीर्वाद नहीं दे सकेंगे जो वे दे सकते हैं। अत: शिष्य द्वारा है तथा अंततः शाश्वत सिद्ध होता है अथवा अल्प कर्मवाला अपने विनयसंपन्न आचरण से गुरु की प्रसन्नता अर्जित करना गुरु महान् ऋद्धि-संपन्न देव होता है। से ज्ञान-प्राप्ति की पहली शर्त है। गुरु के महत्व को स्वीकार ___ अविनय के दुष्परिणाम की चर्चा करते हुवे वे कहते हैं कि करके शिष्य को गुरु के प्रति सर्वात्मना समर्पण करना चाहिये।' अविनयी, दुराचारी शिष्य उस शूकर के समान मृगवत् अज्ञ है आर्य सुधर्मा के शब्दों में इसलिये (शिष्य को) विनय का जो चावल की भूसी को छोड़कर विष्टा खाता है। गुरु के प्रतिकूल आचरण करना चाहिये जिससे कि शील की प्राप्ति हो। ऐसा आचरण करने वाला दुःशील वाचाल शिष्य सब जगह से उसी विनयी मोक्षार्थी शिष्य विद्वान गुरु को पुत्रवत् प्रिय होता है तथा प्रकार से अपमानित करके निकाल दिया जाता है जिस प्रकार अपने गुणों के कारण वह कहीं से भी निकाला नहीं जाता है एक सड़े कान वाली कुतिया सब जगह से दुत्कारकर निकाल (अपितु सर्वत्र सम्मानित होता है)। यथा - दी जाती है। अत: दुःशील से होने वाली अशोभन स्थिति को 'तम्हा विणयमेसेज्जा, सीलं पडिलभे जओ। समझकार उसे अपनेआप को विनय में स्थित करना चाहिये। बुद्ध-पुत्त नियागट्ठि, न निक्कसिज्जइ कण्हुई।।' विनय दासता नहीं - - उत्तराध्ययनसूत्र, १/७ आचार्या श्रीचंदनाजी के अनुसार - यहां यह बात समझ लेनी आवश्यक है कि विनय से आर्य सुधर्मा का अभिप्राय E-26, भूपालपुरा, दासता या दीनता नहीं है, गुरु की गुलामी नहीं है, स्वार्थसिद्धि के उदयपुर-३१३००१ (राज.) लिये कोई दुरंगी चाल नहीं है, कोई सामाजिक व्यवस्थामात्र नहीं है अथवा वह कोई आरोपित औपचारिकता भी नहीं है। विनय तो गुणी गुरुजनों के प्रति शिष्यों के सहज प्रमोदभाव की विनम्र अभिव्यक्ति है जो गुरु-शिष्य के बीच एक मानस-सेतु का कार्य करता है, जिसके माध्यम से गुरु शिष्य को अपने ज्ञान से लाभान्वित करते हैं। ० अष्टदशी / 153 0 only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.012049
Book TitleAshtdashi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy