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________________ मूल्यवान नहीं जीवन में कितना क्या-क्या पाया। मूल्यवान है जीवन मेंकितनों को गले लगाया, कितनों को अपना बनाया। अपनी दूजों से तुलना, करने की आदत छोड़ो। तुम स्वकर्मों से जाने जाओगे, सद्कर्मों से नाता जोड़ो। ओ हो - कितने सुन्दर क्षण थे वे मेरे, मैं था और केवल प्रभु थे संग। उसकी नींद हुई न हुई, पर मेरा सपना हो गया भंग। मेरा सपना हो गया भंग। कोलकाता धनवान नहीं है वह, जो भण्डारों का मालिक होता। धनवान वही है जो, इच्छाओं को सीमित रखता। प्रियजनों को घायल करते, समय नहीं लगता कुछ भी। पर किये घावों को भरने में, वर्षों लगते कभी-कभी। क्षमा-भाव रखकर तुम सबको, क्षमा-दान देना सीखो। दूजे क्षमा करें न करें, पर तुम तो क्षमा करना सीखो। धन सब कुछ पा सकता होगा, पर खुशी क्रय नहीं कर सकता। बन सकता है भवन विशाल, पर घर पैसों से नहीं बनता। मैं सुनता रहा ध्यान से सब कुछ, हो प्रतिपल प्रतिक्षण आनन्द विभोर। निज समय दे रहे हैं इतना, की कृतज्ञता ज्ञापित सविनय कर जोड़। सोच ही रहा था मिला है मौका तोप्रभु से क्या-क्या पूछू और। कि इतने में डांट पड़ी पत्नी की दिया जोर से मुझे झकझोर। बोली कब से बड़बड़ा रहे हो, नींद कर रहे मेरी भंग। ० अष्टदशी / 1450 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.012049
Book TitleAshtdashi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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