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६४ : सरस्वती-बरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ
इसी प्रकारके और भी कई प्रसंग मैंने पंडितजीमें देखे । दुसरी घटना ये है कि इटावा (बीना) जैन मंदिरका पंजीकृत न्यास है। पंडितजीके साथमें इटावाके निष्ठावान समाजसेवी सिंघई आनन्दकुमारजी भी रहे आये हैं जो निरबिरोध नगरपालिका के निर्वाचित अध्यक्ष एवं कृषि उपज मंडीके अध्यक्ष रहे। दोनों महानुभावोंने मुझे संपर्क किया। मंदिर की ६० एकड़ भूमिपर कब्जा व नामदर्ज नहीं हो पा रहा था। राजस्व विभागमें कानून कम द्रव्य अधिक महत्त्वपूर्ण रहता है। पण्डितजीको मैंने स्पष्ट कहा कि कानूनी स्थिति तो मंदिरके पक्षमें पूरी है किन्तु भ्रष्टाचार के आगे शिष्टाचार कमजोर पड़ रहा है। पंडितजी एवं सिंघईजीने कहा कि जो पैसा खर्च हो जहाँ तक भी लड़ना पड़े कानुनसे चलेंगे, हम लोग निजी खर्चा करेंगे, किन्तु भ्रष्ट आचरण नहीं करेंगे और न ही श्री जैन मंदिरका एक पैसा गलत उपयोग होने देंगे, न ही क्षति होने देंगे, कार्यवाही करो। मैंने उनके दृढ़ विश्वासपर कार्यवाही की। कुछ परेशानियाँ आई। किन्तु बिना गलत रास्ता अपनाये विजयीश्री प्राप्त हुई। पंडितजीको कभी-कभी न्यायालयमें अपने निजी कार्यसे भी आना हुआ दिन भर बैठनेके बाद शामको पेशी बढ़ा दी जाती कोई कार्यवाही आगे प्रकरणमें नहीं होती किन्तु पंडितजी ने ऐसा कोई आभास अपने आचरणसे नहीं होने दिया, जिससे न्यायालयको यह भास हो सके कि कोई विशिष्ट प्रकारका महत्त्वपूर्ण व्यक्ति पंडितजी हैं। एक बार जब ज्यादती मेरे मनको छू गई तो मैंने न्यायालयको बताया, जिसपरसे श्रीमान् एन० एच० खान सिविल जज महोदयने क्षोभ प्रकट किया और पंडितजीसे आग्रह किया कि आपको बताना चाहिये था, तो पंडितजीने अपनी लघुता प्रदर्शित करते हुए नम्र व शिष्ट
दन कर कहा कि न्यायालयमें सभी बराबर हैं। आदेश व कार्यवाही में समय लगता है, छोटे-बड़ेका भेद नहीं होता, उसे मानना हमारा कर्तव्य है। साहसपूर्वक धीरज भी रखना चाहिये, इस प्रकारकी सहजता, धीरजकी मूर्ति इटावा-बीना तहसील खुरई और बुंदेलखण्डकी मिट्टी में जन्मे जैन-दर्शनके मूर्धन्य विद्वान, समाजमान्य श्री पंडित बंशीधरजी व्याकरणाचार्यमें है जिनके दीर्घ जीवन एवं स्वस्थ रहने हेतु मंगल-कामना मैं, मेरे परिवारजन, मित्रगण करते हैं ।
"जैनं जयतु शासनम्" वात्सल्य की विलक्षण प्रतिमति •श्री सुमतिप्रकाश जैन, सहायक प्राध्यापक शास० महाविद्यालय, बीना
जीवन है उनका सरल-सरल
___ इतना मधुमय, निश्छल अद्भुत, कि प्रकृति स्वयं कहती घूमे
वह हैं केवल एक पुरुष, चूंकि मेरे पिताश्री (डॉ. नरेन्द्र विद्यार्थी) एवं मातृश्री (डॉ० श्रीमती रमा जैन) के प्रति पण्डितजीका अनन्य आशीष और शिष्यत्वभाव शुरूसे ही रहा है। अतः मुझे भी बीनामें पण्डितजी और उनके परिजनोंसे अपनत्व, स्नेह और आशीष मिला।
आज पण्डितजी जैसा आतिथ्य और विद्वत् प्रेमी मिलना बड़े दुर्लभ सौभाग्यकी बात है। जहाँ वे एक विशुद्ध पण्डित तथा विद्वान् के रूपमें जाने जाते हैं वहीं वे एक शुद्ध शालीन और सत्यनिष्ठ व्यवसायीके रूप में प्रसिद्ध हैं। बीना तो क्या, आस-पासके इलाकोंमें उन जैसा 'एकदाम' एवं सारी व्यावसायिक व सरकारी औपचारिकताओं-देयताओंका पूर्ण निष्ठा एवं ईमानदारीसे समयपर नियमानुसार पालन करनेवाला व्यवसायी नहीं मिलेगा। उनका पारिवारिक एवं व्यावसायिक आचरण उच्चस्तरीय शुद्धता व विश्वासका प्रतीक माना जाता है।
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