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________________ पाकिस्तान के पक्षको अन्यायका और भारतके पक्षको न्यायका पक्ष माना है । मोहके कारण उत्पन्न होनेवाले राग और द्वेष प्राणियोंके जीवनको अशान्त और संघर्षमय बनाते हैं। जबकि परवशता (पराधीनता) के कारभ उत्पन्न होनेवाले राग और द्वेष प्राणियोंके जीवनकी सुखशान्तिमें बाधक न होकर केवल आध्यात्मिक जीवनके विकासमें बाधक होते हैं। इसको जैनागमके आधारपर यों कहा जा सकता है कि मोहके कारण होनेवाले राग और द्व ेष अनन्तानुबन्धी कषायरूप होते हैं, इसलिये वे जीवोंको विवेकी या सम्यग्दृष्टि बननेसे रोकते हैं अर्थात् इससे उनका (जीवोंका) जीवन अशांत और संघर्षमय बना रहता है। इसी तरह परवशता ( पराधीनता) के कारण उत्पन्न होनेवाले राग और द्वेष अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कषायरूप होते हैं इसलिये वे जीवोंको चारित्रकी ओर बढ़नेसे रोकते हैं अर्थात् इसके कारण वे अपना जीवन भोजन, वस्त्र, आवास आदिके बिना सुरक्षित रखने में असमर्थ रहा करते हैं । उपर्युक्त कथनका तात्पर्य यह है कि जिस जीवके मोहका अभाव हो जानेसे उसके कारण उत्पन्न होनेवाले अनन्तानुबन्धी कषायरूप राग और द्वेष समाप्त हो जाते हैं उस जीवमें वीतरागविज्ञानताका प्रारम्भिक रूप आ जाता है और फिर इसके पश्चात् एक ओर तो धीरे-धीरे अन्तरायकर्मके देशघातिस्पर्द्धकों के उदयका अभाव होते हुए वह पूर्णतया नष्ट हो जावे तथा दूसरी ओर उत्तरोत्तर अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कवायके कमसे राग और द्वेष भी धीरे-धीरे पटते हुए अन्तमें पूर्णतया नष्ट हो जावे व इसके अलावा ज्ञान भी इसके बाधक समस्त ज्ञानावरण कर्मका अभाव हो जानेसे पूर्णतया प्रकट हो जावे, तो ऐसी स्थिति जब बन जाती है तब उस जीवमें वीतरागविज्ञानता अपने चरमउत्कर्ष पर पहुँच जाती है । ५ / साहित्य और इतिहास ३९ वीतरागविज्ञानताका उक्त प्रारम्भिकरूप प्रकट हो जानेसे जब जीव है तब अशांति व संघर्षका बीज समाप्त हो जानेके कारण उसको भावना में, कार्यमे "जियो और जीने दो' के सिद्धान्तकी झलक दिखाई देने लगती है। लौकिक धर्म इसीका नाम है । यही जीव जब आगे चलकर अप्रत्याख्यानावरण कषायको किंचित् हानि हो जानेपर मोक्षप्राप्तिके प्रति उत्सु कतारूप दर्शनप्रतिमाका पारी हो जाता है तब वह सर्वप्रथम "मुमुक्षु" संज्ञाको प्राप्त होता है और वह जीव वहीं से आध्यात्मिक धर्मके मार्ग में प्रवेश करता है । यहाँसे लेकर जिस जीव में अध्यात्मिक धर्मका मार्ग जैसाजैसा विकसित होता जाता है उसके लौकिक धर्मके मार्गका दायरा वैसा-वैसा ही संकुचित होता जाता है। अर्थात् इसके लिये उक्त क्रमसे जीवनसंरक्षणका प्रश्न गौण व आत्मविकासका प्रश्न मुख्य हो जाता है। इस तरह उस हालत में जो कुछ वह सोचता है और जो कुछ वह करता है उसका मेल वह मुख्यतया अपने आत्मविकासके साथ ही बिठलाने लगता है । Jain Education International विवेकी या सम्यग्दृष्टि बन जाता उसकी वाणी में और उसके प्रत्येक इस विषयको इस तरह भी स्पष्ट किया जा सकता है कि लौकिक धर्म प्रवृत्ति-परक धर्म है और आध्यात्मिक धर्म निवृत्तिपरक धर्म है। जिस व्यक्ति के सामने केवल जीवनके संरक्षणका प्रश्न ही महत्त्वपूर्ण है उसका कर्त्तव्य है कि वह प्रवृत्तिपरक लौकिकधर्मके मार्गपर चले । अर्थात् वह अपनी प्रवृत्ति ऐसा निर्णय करके करे कि वह प्रवृत्ति किस दृष्टिसे और कहाँ तक न्यायोचित है तथा स्वके लिये व समाज, राष्ट्र एवं विश्वके लिये किसी भी प्रकार विघातक नहीं है । परन्तु लौकिक धर्मके मार्गपर चलनेवाले व्यक्ति के लिये स्व, तथा समाज एवं राष्ट्रकी रक्षाके निमित्त यदि कदाचित् आवश्यक हो जावे तो न्यायोचित तरीकेसे शस्त्रका उपयोग करना भी जैन संस्कृतिके धार्मिक तत्त्वज्ञान के अनुसार अहिंसाकी परिधि में आता है । इसलिये भारत पर पाकिस्तान द्वारा आक्रमण किये जानेपर भारतको अपनी रक्षाके लिये जो युद्धमें प्रवृत्त होना पड़ा उससे भारतको किसी भी प्रकार हिंसक नहीं माना जा सकता है और न इससे उसकी (भारतको) अहिंसक नीतिमें कोई अन्तर ही उत्पन्न होता है । 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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