SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 589
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ करनेके लिये बड़े-बड़े विद्यालय मौजूद हैं, समाजका आर्थिक सहयोग भी उन्हें मिल रहा है, बहुतसे विश्वविद्यालयोंकी परीक्षाओंमें जैन संस्कृतिका कोर्स रख दिया गया है और पठन-पाठनके लिये अध्यापकोंकी नियुक्तियाँ भी कर दी गयी हैं । परन्तु शिक्षण लेने वालोंकी अत्यधिक कमी दृष्टिगोचर हो रही है। इसका मूल कारण यह है कि सभी प्रकारकी शिक्षाका उद्देश्य आज नौकरी करना हो गया है और नौकरीमें भी अधिक-से-अधिक अर्थलाभकी दृष्टि बन चुकी है, जिसकी पूर्तिकी आशा सांस्कृतिक शिक्षासे कभी नहीं की जा सकती है। इस तरह सांस्कृतिक शिक्षण लेनेवालोंको कमी हो जानेके कारण भविष्यमें सांस्कृतिक ज्ञानके लुप्त हो जानेकी आशंका होने लगी है। यद्यपि यह प्रसन्नताकी बात है कि हमारे विद्यालयोंने भविष्यमें सांस्कृतिक ज्ञानकी सुरक्षाकी दृष्टिसे अपनी शिक्षणपद्धतिमें कुछ सुधार किये हैं तथा उनका लाभ इन विद्यालयोंमें पढ़ने वालोंको मिला भी है, जिसका परिणाम यह हुआ है कि ऐसे विद्वान सामाजिक क्षेत्रसे बाहर अच्छे क्षेत्रोमें कार्य कर रहे हैं । परन्तु साथमें इसका यह भी परिणाम हुआ है कि ऐसे बहुतसे विद्वानोंका सामाजिक और सांस्कृतिक कार्योंसे प्रायः सम्पर्क समाप्त हो चुका है। विद्वत्परिषद्का कर्तव्य है कि वह ऐसे विद्वानोंसे सम्पर्क स्थापित करे और उनके अन्दर सामाजिक तथा सांस्कृतिक कार्योंके प्रति रुचि जागृत करे। इसके अतिरिक्त सांस्कृतिक ज्ञानकी भावी सुरक्षाको दृष्टिसे कुछ ठोस उपाय भी आपको सोचना है । इस विषयमें मेरा सुझाव है कि त्यागमार्गकी ओर बढ़ने वाले व्यक्तियोंमेंसे बुद्धिमान व्यक्तियोंको चुनकर उनमें सांस्कृतिक तत्त्वज्ञानके अध्ययनकी रुचि जागत की जावे तथा उनको विद्यालयोंमें छात्र के रूप में रहनेकी उचित सुविधा दिलायी जावे । यदि इस परम्पराके चलानेमें विद्वत्परिषद् सफल हो जाती है तो सांस्कृतिक ज्ञानकी भावी सुरक्षाका प्रश्न सुदुर भविष्य तकके लिये हल हो सकता है। एक जिस बातके ऊपर विद्वत्परिषद्का ध्यान जाना जरूरी है वह यह है कि सांस्कृतिक अध्ययनअध्यापनको जी पद्धति अभी चल रही है उससे छात्रोंको ग्रंथोंका अभ्यास तो हो जाता है परन्तु विषयके समझने में वे अन्त तक कमजोर रहा करते हैं। पढ़ने में भी उन्हें अधिक श्रम करना पड़ता है अतः सांस्कृतिक पठन-पाठनके विषयमें वैज्ञानिक पद्धति निकालनेकी योजना बनानेकी ओर भी हमारा लक्ष्य जाना चाहिये। इससे पढ़ने वाले छात्रोंको विषय सरलताके साथ समझमें आने लगेगा। साथ ही उनके श्रममें भी कभी आ जायगी । इसका एक परिणाम यह भी होगा कि अभी जो सांस्कृतिक अध्ययन करने वाले छात्र अरुचिपूर्वक सांस्कृतिक अध्ययन करते हैं यह बात न रहकर वे रुचिपूर्वक अध्ययन करने लगेंगे । एक बात यह भी प्रसन्नता की है कि हमारे सांस्कृतिक विद्वान जैन संस्कृतिके साहित्यके विषयमें ऐतिहासिक दृष्टिसे बहत कुछ सोचने और लिखने लगे हैं। इसका प्रत्यक्ष लाभ यह हआ है कि जैनेतर विद्वानोंकी रुचि जैन संस्कृतिके साहित्यका अध्ययन करनेकी ओर उत्पन्न हुई है, जैन संस्कृतिके प्रसारकी दृष्टिसे यह उत्तम बात है। इसके साथ ही हमें अपने प्राचीनतम साहित्यके आधारपर लोकभाषा हिन्दी आदि भाषाओंमें भी सांस्कृतिक मौलिक साहित्यका निर्माण करना चाहिये। हमारे पुरातन महर्षियोंने जैन संस्कृतिके साहित्यनिर्माणमें जिस प्रकार तत्कालीन लोकभाषाओंका समादर किया था, ठीक उसी प्रकार आज हमें भी करना चाहिये । यद्यपि हमारे बहुतसे विद्वानोंने पुरातन साहित्यका हिन्दी आदि भाषाओंमें अनुवाद किया है और कर रहे हैं परन्तु इतनेसे ही हमें संतोष नहीं कर लेना चाहिये। मैंने जिन बातोंका ऊपर संकेत किया है वे सब बातें विद्वत्परिषद्के उद्देश्यसे सम्बन्ध रखनेवाली है और इसके कर्त्तव्यक्षेत्रमें आती हैं। इनके अतिरिक्त आपके मस्तिष्कमें भी बहुत-सी बातें होंगी उन्हें आप भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary:org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy