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________________ ५ / साहित्य और इतिहास : १५ यद्यपि और भी वैय्याकरणोंका उल्लेख जैनेन्द्रव्याकरणमें पाया जाता है। जैसे "चतुष्टयं समन्तभद्रस्य, राद्भूतवलेः, वेत्ते सिद्धसेनस्य" इत्यादि । तथापि उनके निर्मित व्याकरण सम्बन्धी ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं । इसीलिये सम्भवतः उनका निर्देश प्रसिद्ध वैय्याकरणोंमें नहीं किया गया है । अथवा जबतक पद्योंका निर्माण हुआ है उसके बाद साम्प्रदयिकताके विषने प्रवेश करके इनकी कीर्तिको छपानेका प्रयत्न किया हो। अस्तु, कुछ भी हो, जैनेन्द्रव्याकरणमें इनका निर्देश पाया जाता है। इससे सम्भव है कि जैन साहित्यके अन्य आचार्योंने भी इस विषयमें कलम उठायी थी तथा वाङ्मयकी पवित्र सेवा करके जगतका कल्याण किया था। इस कथनसे मालूम पड़ता है कि जैन संसारमें बड़े-बड़े महत्त्वशाली वैय्याकरण हुए हैं। कोई यह कहनेका दावा नहीं कर सकता कि जैनियोंमें व्याकरणसूत्रकार नहीं हुए हैं, प्रत्युत हम यह कहने में समर्थ हैं कि जितने व्याकरणसूत्रकार जैनियोंमें हुए हैं उतने शायद ही किसी संप्रदायमें हुए हों। इनमें उपलब्ध व्याकरणोंकी टीकायें-प्रतिटीकायें उपलब्ध है, जिनको प्रकाशमें लानेकी बहुत आवश्यकता है। हाँ, इतना विस्ताररूप, जितना कि पाणिनीय व्याकरणको टीका-प्रतिटीकाओंका है जैन व्याकरणों की टीका-प्रतिटीकाओंका नहीं है। तथा पाणिनीय व्याकरणका इतना फैलाव इसीलिए हआ कि उसका वैदिक विद्वानोंने अत्यन्त श्रम करके प्रचार किया है। किन्तु जैनियोंने इस विषयपर बहुत दिनोंसे ध्यान देना छोड़ दिया है। किसी भी व्याकरणका महत्त्व लघुतामें है। वह लघुता कई तरहसे हो सकती है। जैसे प्रक्रियाकृत लघुता, प्रतिपत्तिकृत लघुता, संज्ञाकृत लघुता आदि। जैन व्याकरणमें इन सब प्रकारकी लघुताओंका पूरापूरा ध्यान रखा गया है। पाणिनीय व्याकरणमें जहाँ डीप, डौंष, ङीन प्रत्ययोंका विधान स्वरादिभेदके लिये स्वीकार किया है वहाँ जैनेन्द्र व्याकरणमें की प्रत्ययसे ही कार्य निकाल लिया है। यह प्रक्रियाकृत लघुता है । इसी तरह सर्वत्र प्रक्रियाकृत लघुता पायी जाती है । पाणिनिने "अर्धमात्रालाघवं पुत्रोत्सवं मन्यन्ते वैयाकरणाः" इस न्यायको स्वीकार करके भी जब संज्ञाओंके विषयमें लघुताका अभाव देखा, तब संज्ञाविधिमें इस न्यायकी प्रवृतिका निषेध भी किया । लेकिन जैन व्याकरणमें संज्ञाकी लघुताको स्वीकार कर न्यायकी प्रवृत्तिको अक्षुण्ण रक्खा है। जैसे सर्वणसंज्ञाके स्थानमें स्वसंज्ञा, प्रतिपादिक संज्ञाके स्थानमें मत संज्ञा, सभास संज्ञाके स्थानमें सखंज्ञा इत्यादि सभी संज्ञाओंक लघु बनाया है जो ग्रन्थोंको देखनेसे स्पष्ट मालूम पड़ सकता है । जहाँ प्रक्रियाकृत और संज्ञाकृत लघुता है वहाँ पर प्रतिपत्तिकृत लघुता है ही, क्योंकि उक्त दोनों लघुताओंके रहनेसे पदार्थज्ञानमें सरलता पड़ जाती है। पाणिनिने इत्संज्ञा विधानमें कई नियम बताये हैं किन्तु जैनेन्द्र व्याकरणमें "अप्रयोगीत" इस नियमको स्वीकार करके अन्य नियमोंकी आवश्यकता नहीं समझी गयी है। इसी प्रकारकी और भी बहुत-सी लघुतायें व्याकरणकी महत्ताको प्रकट करती हैं । यहाँपर संक्षेपमें दिग्दर्शन मात्र कराया गया है। कातंत्रव्याकरणमें तो इतनी प्रतिपत्तिकृत लघुता मानी हुई है कि बंगाल प्रान्तमें उसीका प्रचार है और उसकी परीक्षा कलकत्ता संस्कृत कालेजमें होती है, जोकि कलाप व्याकरणके नामसे प्रसिद्ध है। यह उसकी महत्ताका द्योतक है। मुझे विश्वास है कि जिस प्रकार कातंत्रव्याकरणका किसी जमानेमें प्रचार हुआ है उसी प्रकार अन्य जैन व्याकरणोंका भी प्रचार हो सकता है। लेकिन हम स्वयं उसकी महत्ताको नहीं समझे हैं। कातंत्रका भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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