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________________ १४ सरस्वती-वरवपुत्र पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ पाणिनि नन्दराज्य के समय में हुए हैं। इससे भी प्राचीन समय में उल्लिखित वैय्याकरणोंकी उपस्थिति थी । कई लोग शाकटायन नामके जैन अजैन दो विद्वानको स्वीकार करते हैं। इससे उनका प्रयोजन यह है कि जैन शाकटायनाचार्य पाणिनिले अर्वाचीन हैं और पाणिनिने अपने व्याकरणमें जिनका निर्देश किया है, वे अर्जन थे और पाणिनिके पूर्व विद्यमान थे। वे इसमें यह कारण उपस्थित करते हैं कि शाकटायनका, जिनका कि पाणिनिने निर्देश किया है, वेदादि ग्रन्थोंसे भी बहुत कुछ सम्बन्ध है । किन्तु यह कारण इतना पुष्कल नहीं है कि उनके प्रयोजनको सिद्ध कर सके, क्योंकि मैंने पहले लिखा है कि व्याकरण शब्दार्थज्ञानका ही प्रयोजक है । वैय्याकरण व्याकरण लिखते समय किसी सिद्धान्तविशेषसे कोई प्रयोजन नहीं रखता है । वह तो शब्दसिद्धि ही अपने ग्रन्थ निर्माणका ध्येय समझता है । यदि ऐसा नहीं होता, तो काशिकाकार, जोकि जैन थे, पाणिनीय व्याकरणके ऊपर काशिकावृत्ति नामक टीका नहीं लिखते । और सिद्धान्तकौमुदीके पहले अजैन लोग भी जो उसका रुचिपूर्वक अध्ययन, अध्यापन करते थे वह भी अनुचित ठहरता । कादम्बरी ग्रन्थके ऊपर जैन टीकाकारने जो टीका लिखी है वह भी इसी सिद्धान्तको स्वीकार करनेमें सहायक है कि जो विषय किसी भी सिद्धान्तका विरोधी नहीं होकर समान रूपसे सर्वके उपयोगी है, वे सबको ग्राह्य हैं। कोई-कोई विरोधी ग्रन्थोंकी टीकायें भी आचार्योंने की हैं। लेकिन अवश्य है कि उसका उद्देश्य केवल उनके सिद्धान्तको विस्तारसे समझ उनकी असत्यता प्रकट करना ही है । यह भावना दार्शनिक ग्रंथोंमें ही सम्भव है क्योंकि विरोधकी सत्ता सिद्धान्तके विषय में ही पाई जाती है । इससे यह स्पष्ट हो जाता है, कि जबतक अकाट्य प्रबल प्रमाण नहीं मिल जाता तबतक जैन शाकटायनाचार्यके अतिरिक्त एक अजैन शाकटायनाचार्यकी सत्ता स्वीकार करना विद्वानोंको रुचिकर प्रतीत नहीं होता। इस समय इस लेखको समयाभावसे संक्षेपमें लिख रहा हूँ अतः सम्पूर्ण बातोंपर विशेष प्रकाश नहीं डाल सका हूँ। मेरी हार्दिक इच्छा है कि जैन व्याकरणका संस्कृत संसारमें प्रचुर प्रचार हो और यह तभी हो सकता है जब विद्वान् लोग व्याकरणके उद्देश्यको सामने रख कर उसकी महत्ताका प्रचार करें। इसके लिये भी मैं भविष्य में यथासम्भव प्रयत्न करूँगा। इस समय तो इस लेखको संक्षेप पूर्वक लिखनेका ही प्रयोजन है । , जैनेन्द्र व्याकरण तो उनके नामसे ही जैनाचार्य कृत सिद्ध होता है। जैनेन्द्र व्याकरणके नामसे दो रूपक हमारे सामने उपस्थित है। एक तो वह जिसकी टीका जैनेन्द्रमहावृत्ति है और दूसरा वह जिसकी कि टीका शब्दार्णवचन्द्रिका है । इन दोनों रूपकोंके कर्ता स्वतंत्र हैं या एक दूसरेका रूपान्तर है, इसमें विद्वानोंका मतभेद है किन्हींका कहना है कि जिसकी टीका जैनेन्द्रमहावृत्ति है वह जैनेन्द्र व्याकरण है और उसके कर्ता देवनन्दि अपरनाम सर्वार्थसिद्धिके कर्ता पूज्यपादाचार्य है और जिसकी टीका शब्दार्णवचन्द्रिका है उस व्याकरणका नाम शब्दार्णव है और उस टीकाका नाम चन्द्रिका ही है, क्योंकि "शब्दार्णवचन्द्रिका" शब्दका शब्दार्णवव्याकरणकी चन्द्रिकानामक टीका अर्थ होता है। किन्हीं का कहना है। एक दूसरेका रूपान्तर है कि इन दोनोंके कर्ता स्वतंत्र ही नहीं है। शब्दार्णवचन्द्रिका यह नाम टीकाका ही है जैसे पाणिनीय व्याकरणकी टीका सिद्धान्तकौमुदी अर्थात् जिस प्रकार सिद्धान्तकौमुदीव्यका अर्थ सिद्धान्त नामक व्याकरणकी कौमुदी नामक टीका नहीं होता है उसी प्रकार शब्दावव्याकरणकी टीका चन्द्रिका यह अर्थ शब्दाणवचन्द्रिका शब्दका नहीं होना चहिये । तथा इन दोनों में सूत्रसादृश्य भी अधिक है । यदि ये स्वतन्त्र व्याकरण होते, तो अन्य व्याकरणोंकी तरह इन दोनोंमें भी इतना सूत्रसादृश्य नहीं होता । परन्तु इन दोनोंमें एक कोई मत तभी मान्य हो सकता है, जबकि एक मत अपनेमें संभव विरोधका निराकरण करते हुए अपनी सिद्धिमें प्रबल प्रमाण रखता हो। मैं इस समय तीनोंके विषय में तटस्वरूप है क्योंकि इस समय मेरे पास पर्याप्त सामग्री नहीं, जिसके आधारपर कुछ लिख सकू, फिर भी इसके निर्णय के लिये सचिन्त अवश्य हूँ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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