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________________ जैन व्याकरणकी विशेषताएँ संसार में यदि भाषातत्त्व नहीं होता तो सर्व सचेतन जगत् पाषाणकी तरह मूक ही रहता, इसमें कोई सन्देह नहीं । यों तो भाषातत्त्व पशु, पक्षी आदिको भी उपयोगी है, किन्तु मनुष्यका तो एक-एक क्षण भी भाषातत्व के विना व्यर्थ -सा प्रतीत होता है । भाषाके जरिये ही हम अपने अभिप्रायको दूसरोंके प्रति प्रकट कर सकते हैं । हमारा जितना लोकव्यवहार है वह भाषातत्त्वके ऊपर ही निर्भर है। यहाँ तक कि भाषा-विज्ञान भी मुक्ति प्राप्ति में एक कारण है । संसार में नाना भाषाएँ प्रचलित हैं । प्रत्येक भाषाका गौरव और लोकमान्यता उस भाषाके शब्दोंकी प्रचुरता एवं मधुरताके साथ-साथ प्रत्येक शब्दके अर्थप्राचुर्यसे हो हो सकते हैं । यदि हम बिना व्याकरणके उल्लिखित कारणों की पुष्टिके लिये शब्दकल्पना और अर्थकल्पना करने बैठें, तो शायद जीवन की परिसमाप्ति होने पर भी उसे पूर्ण नहीं कर सकते तथा शब्दप्रयोगकी व्यवस्था बनाना असम्भव हो जाय, इसलिये भाषाके गौरव और लोकमान्यता के लिये भाषासम्बन्धी नियमका जानना आवश्यक होता है और इस नियमका नाम ही व्याकरण है । (वि + संस्कारविशेषेण) संस्कारविशेषसे ( आ = समन्तात् ) संपूर्ण ( शब्दान्) शब्दों को जो, (करोति = निष्पादयति) उत्पन्न करता है वह व्याकरण है । अथवा (वि = संस्कारविशेषेण ) संस्कारविशेषसे ( आ = समन्तात् ) संपूर्ण (शब्दाः) शब्द (क्रियन्ते = निष्पाद्यन्ते) उत्पन्न किये जाते हैं (येन ) जिससे, वह व्याकरण है । इन दोनों व्युत्पत्तियोंसे भी उल्लिखित भाव स्पष्ट झलकता है | व्याकरणसे भिन्न-भिन्न अर्थों में शब्दनिष्पत्ति की जाती है, इसलिये अर्थ प्राचुर्य में भी व्याकरण ही कारण है । 'अर्थभेदात् ध्रुवः शब्दभेदः, सर्वे शब्दाः सर्वार्थवाचकाः" इत्यादि नियम भी व्याकरणंको ही अर्थप्राचुर्यमें कारण बतला रहे हैं । इसलिये व्याकरण ही भाषातत्त्वमें प्रवेश करनेका मुख ( द्वार ) है । मनुष्य, पशु, पक्षी इत्यादिका यदि मुख नहीं होता, तो उनका जिन्दा रहना दुःशक्य तो क्या असम्भव ही था। ठीक यही हालत उस भाषाकी भी है, जिसकी कि अपनी व्याकरण नहीं है । भावकी स्थिति उस भाषाके प्रचुर साहित्य पर है । साहित्यका निर्माता कवि होता है और कवि नानार्थ से मीठे-मीठे शब्दोंकी चाह रखता है। जहां उसको ऐसे शब्द नहीं मिलते हैं वहाँ वह अपने साहित्यको रमणीय एवं हृदयवेधी नहीं बना सकता है और ऐसी हालत में उसके उस साहित्यको साधारण लोग भी पसन्द नहीं करते हैं । इसका परिणाम यह होता है कि वह भाषा, जिसमें साहित्यकी रमणीयता और हृदयवेधिता नहीं रहती है, अन्तको प्राप्त हो जाती है संस्कृत व्याकरण और उसका वैशिष्ट्य संस्कृत भाषाका प्रचार संसारके कोने-कोने में ( चाहे वह किसी रूप में क्यों न हो ) आज भी विद्यमान है । इसका कारण यह है कि उसका साहित्य विस्तृत तो है ही, साथ में ग्राह्य भी अधिक है । इसका भी कारण संस्कृत भाषाका व्याकरण ही है । संस्कृत व्याकरणकी यह खूबी है कि एक ही शब्दसे शब्दान्तरके योगसे नाना शब्द बन जाते हैं । हार, विहार, आहार, संहार, प्रहार, निहार इत्यादि अनेक शब्दोंको सृष्टि "हृ" शब्दसे ही हुई है । इस खूबीको अन्य किसी भाषाका व्याकरण आज तक नहीं प्राप्त कर सका, इसलिये उन भाषाओं की संकीर्ण भूमिपर किसी साहित्यनिर्माता कविका अन्तःकरण स्वच्छन्द विहार नहीं कर सकता है । यद्यपि इंग्लिश आदि भाषाओं में साहित्यकी अधिकता है, फिर भी शब्दोंकी अधिक पुनरुक्ति कवियोंके लिये अवश्य करनी पड़ती है तथा शब्दकल्पना भी उनको बहुत करनी पड़ी है । आज संस्कृतभाषारूपी सूर्य, जो अपना प्रकाश नहीं फैला रहा है, उसका कारण उसके व्याकरण, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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