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________________ ५ / साहित्य और इतिहास : ११ जीवादि सात ही क्यों ? प्रमाण और नय तथा इनके भेद, नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, जीवकी स्वाधीन और पराधीन अवस्थाये, विश्वके समस्त पदार्थोंका छह द्रव्योंमें समावेश, द्रव्योंकी संख्या छह ही क्यों ? प्रत्येक द्रव्यका वैज्ञानिक स्वरूप, धर्म और अधर्म द्रव्योंकी मान्यता, धर्म और अधर्म ये दोनों द्रव्य एक-एक क्यों ? तथा लोकाशके बराबर इनका विस्तार क्यों ? आकाशद्रव्यका एकत्व और व्यापकत्व, कालद्रव्यकी अणरूपता और नानारूपता, जीवकी पराधीन और स्वाधीन अवस्थाओंके कारण. कर्म और नोकर्म, मोक्ष आदि ।' ___इन सब विषयोंपर यदि इस लेखमें प्रकाश डाला जाय तो यह लेख एक महान् ग्रन्थका आकार धारण कर लेगा और तब वह ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्रके महत्त्वका प्रतिपादक न होकर जैन संस्कृतिके ही महत्त्वका प्रतिपादक हो जायगा, इसलिए तत्त्वार्थसूत्र में निर्दिष्ट उक्त विषयों तथा साधारण दुसरे विषयोंपर इस लेख में प्रकाश न डालते हुए इतना ही कहना पर्याप्त है कि इस सूत्रग्रन्थमें सम्पूर्ण जैन संस्कृतिको सूत्रोंके रूपमें बहुत ही व्यवस्थित ढंगसे गूंथ दिया गया है । सूत्रग्रन्थ लिखनेका काम बड़ा ही कठिन है, क्योंकि उसमें एक तो संक्षेपसे सभी विषयोंका व्यवस्थित ढंगसे समावेश हो जाना चाहिए । दूसरे उसमें पुनरुक्तिका छोटे-से-छोटा दोष नहीं होना चाहिये । ग्रन्थकार तत्त्वार्थसूत्रको इसो ढंगसे लिखने में सफल हुए हैं, यह बात निर्विवाद कही जा सकती है। उपसंहार बड़े-बड़े विद्वानोंके सामने विश्व स्वयं एक पहेली बन कर खड़ा हआ है। संसारकी दुःखपूर्ण अजीबअजीब घटनाओंसे उद्विग्न आत्मोन्निनीषु लोगोंके सामने आत्मकल्याणकी भी एक समस्या है। इसके अतिरिक्त मानवमात्रको जीवन-समस्या तो, जिसका हल होना पहले और अत्यन्त आवश्यक है, बड़ा विकराल रूप धारण किये हए है। इन सब समस्याओंको सुलझानेमें जैन संस्कृति पूर्णरूपसे सक्षम है। तत्त्वार्थसूत्र-जैसे महान ग्रन्थोंका योग सौभाग्यसे हमें मिला हुआ है और इन ग्रन्थोंका पठन-पाठन भी हम लोग सतत किया करते हैं। परन्तु हमारी ज्ञानवृद्धि और हमारा जीवनविकास नहीं हो रहा है, यह बात हमारे लिये गम्भीरतापूर्वक सोचनेकी है। यदि हमारे विद्वानोंका ध्यान इस ओर जावे तो इन सब समस्याओंका हल हो जाना असम्भव बात नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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