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७० : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ
उपयोगी सिद्ध हों अथवा उनका लोककल्याणोपयोगितासे थोड़ा भी सम्बन्ध न हो और उपयोगितावादके आधार पर वे सब पदार्थ मान्यताकी कोटिमें स्थान पाते हैं, जो लोककल्याणके लिये उपयोगी सिद्ध होते हों, भले ही उनका अस्तित्व प्रमाणों द्वारा सिद्ध हो सकता हो अथवा उनके अस्तित्वकी सिद्धिके लिये कोई प्रमाण उपलब्ध न भी हो।
दर्शनोंमें आध्यात्मिकता और आधिभौतिकताका भेद दिखलाने के लिये उक्त उपयोगितावादको ही आध्यात्मिकवाद और उक्त अस्तित्ववादको ही आधिभौतिकवाद कहना चाहिये, क्योंकि आत्मकल्याणको ध्यानमें रखकर पदार्थ-प्रतिपादन करनेका नाम आध्यात्मिकवाद और आत्मकल्याणकी ओर लक्ष्य न देते हुए भूत अर्थात् पदार्थों के अस्तित्वमात्रको स्वीकार करनेका नाम आधिभौतिकवाद मान लेना मुझे अधिक संगत प्रतीत होता है । जिन विद्वानोंका यह मत है कि समस्त चेतन-अचेतन जगतकी सृष्टि अथवा विकास आत्मासे मानना आध्यात्मिकवाद और उपर्युक्त जगतकी सृष्टि अथवा विकास अचेतन अर्थात् जड़ पदार्थसे मानना आधिभौतिकवाद है उन विद्वानोंके साथ मेरा स्पष्ट मतभेद है। इस मतभेदसे भी मेरा तात्पर्य यह है कि आध्यात्मिकवाद और आधिभौतिकवादके उनको मान्य अर्थ के अनुसार उन्होंने जो वेदान्तदर्शनको आध्यात्मिक दर्शन और चार्वाकदर्शनको आधिभौतिक दर्शन मान लिया है वह ठीक नहीं है। मेरा यह स्पष्ट मत है और जिसे मैं पहिले लिख चुका हुँ कि सांख्य, वेदान्त, मीमांसा, योग, न्याय और वैशेषिक ये सभी वैदिक दर्शन तथा जैन, बौद्ध और चार्वाक ये सभी अवैदिक दर्शन पूर्वोक्त उपयोगितावादके अधारपर ही प्रादुर्भुत हए हैं। इसलिये ये सभी दर्शन आध्यात्मिकवादके ही अन्तर्गत माने जाने चाहिये । उक्त दर्शनोंमेंसे किसी भी दर्शनका अनुयायी अपने दर्शनके बारेमें यह आक्षेप सहन करने को तैयार नहीं हो सकता है कि उसके दर्शनका विकास लोककल्याणके लिये नहीं हुआ है और इसका भी सबब यह है कि भारतवर्ष सर्वदा धर्मप्रधान देश रहा है। इसलिये समस्त भारतीय दर्शनोंका मूल आधार उपयोगितावाद मानना ही संगत है। इसका विशेष स्पष्टीकरण नीचे किया जा रहा है
'लोककल्याण' शब्दमें पठित लोकशब्द 'जगतका प्राणिसमह' अर्थमें व्यवहत होता हआ देखा जाता है, इसलिये यहाँपर लोककल्याणशब्दसे 'जगत्के प्राणिसमूहका कल्याण' अर्थ ग्रहण करना चाहिये । कोई-कोई दर्शन प्राणियोंके दृश्य और अदृश्य दो भेद स्वीकार करते हैं और किन्हीं-किन्हीं दर्शनोंमें सिर्फ दृश्य प्राणियोंके अस्तित्वको ही स्वीकार किया गया है। दृश्य प्राणी भी दो तरह के पाये जाते हैं-एक प्रकारके दृश्य प्राणी वे हैं जिनका जीवन प्रायः समष्टि-प्रधान रहता है। मनुष्य इन्हीं समष्टि-प्रधान जीवनवाले प्राणियोंमें गिना गया है क्योंकि मनुष्योंके सभी जीवन-व्यवहार प्रायः एक-दुसरे मनुष्यकी सद्भावना, सहानुभूति और सहायतापर ही निर्भर है, मनुष्योंके अतिरिक्त शेष सभी दृश्य प्राणी पशु-पक्षी, सर्प-बिच्छू, कीट-पतंग वगैरह व्यष्टिप्रधान जीवनवाले प्राणी कहे जा सकते हैं क्योंकि इनके जीवन-व्यवहारोंमें मनुष्यों जैसी परस्परकी सद्भावना, सहानुभूति और सहायताकी आवश्यकता प्रायः देखने में नहीं आती है। इस व्यष्टिप्रधान जीवनकी समानताके कारण ही इन पशु-पक्षी आदि प्राणियोंको जैनदर्शनमें 'तिर्यग्' नामसे पुकारा जाता है, कारण कि 'तिर्यग्' शब्दका समानता अर्थ में भी प्रयोग देखा जाता है। सभी भारतीय दर्शनकारोंने अपने-अपने दर्शनके विकासमें अपनी-अपनी मान्यताके अनुसार यथायोग्य जगत्के इन दृश्य और अदृश्य प्राणियोंके कल्याणका ध्यान अवश्य रखा है। चार्वाकदर्शनको छोड़कर उल्लिखित सभी भारतीयदर्शनोंमें प्राणियोंके जन्मान्तररूप परलोकका समर्थन किया गया है। इसलिये इन दर्शनोंके आविष्कर्ताओंकी लोककल्याणभावनाके प्रति तो संदेह करनेकी गुंजाइश ही नहीं है लेकिन उपलब्ध साहित्यसे जो थोड़ा बहुत चार्वाकदर्शनका हमें दिग्दर्शन होता है उससे उसके (चार्वाकदर्शनके) आविष्कर्ताकी भी लोककल्याणभावनाका पता हमें सहज में ही लग जाता है।
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