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४/ दर्शन और न्याय : ६९
अपने जीवनको धर्ममय बनानेके लिये अपनी संस्कृतिको विकारों, पाखण्डों और रूढ़ियोंसे परिष्कृत बनाते हए अधिक-से-अधिक धर्मके अनुकूल बनाने के प्रयत्न में लग जायेंगे तथा उनमेंसे अहंकार, पक्षपात और हठके साथसाथ परस्परके विद्वेष, घृणा, ईर्षा और कलहका खात्मा होकर सम्पूर्ण मानव-समष्टिमें विविध संस्कृतियोंके सद्भावमें भी एकता और प्रेमका रस प्रवाहित होने लगेगा।
___मेरा इतना लिखनेका प्रयोजन यह है कि जिसे लोकमें 'जैन धर्म, नामसे पुकारा जाता है उसमें दूसरी दूसरी जगह पाये जानेवाले विशद्ध धार्मिक अंशको छोड़कर सैद्धान्तिक और व्यावहारिक मान्यताओंके रूपमें जितना जैनत्वका अंश पाया जाता है उसे 'जैन संस्कृति' नाम देना ही उचित है, इसलिये लेखके शीर्षकमें मैंने 'जैनधर्म के स्थानपर 'जैनसंस्कृति' शब्दका प्रयोग उचित समझा है और लेखके अन्दर भी यथास्थान धर्मके स्थानपर संस्कृति शब्दका ही प्रयोग किया जायगा । विषयप्रवेश
किसी भी संस्कृतिके हमें दो पहलू देखनेको मिलते है-एक संस्कृतिका आचार-संबन्धी पहलू और दूसरा उसका सिद्धान्त-सम्बन्धी पहलू ।
जिसमें निश्चित उद्देश्यको पूर्तिके लिये प्राणियोंके कर्त्तव्यमार्गका विधान पाया जाता है वह संस्कृतिका आचारसम्बन्धी पहलू है। जैनसंस्कृतिमें इसका व्यवस्थापक चरणानुयोग माना गया है और आधुनिक भाषाप्रयोगकी शैलीमें इसे हम 'कर्तव्यवाद' कह सकते हैं।
संस्कृतिके सिद्धान्त-सम्बन्धी पहलूमें उसके (संस्कृतिके) तत्त्वज्ञान (पदार्थव्यवस्था) का समावेश होता है। जैनसंस्कृतिमें इसके दो विभाग कर दिये हैं-एक सप्ततत्त्वमान्यता और दूसरी षडद्रव्यमान्यता । सप्ततत्त्वमान्यतामें जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात पदार्थोंका और षड्द्रव्यमान्यतामें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह पदार्थोंका समावेश किया गया है। जैनसंस्कृतिमें पहली मान्यताका व्यवस्थापक करणानुयोग और दूसरी मान्यताका व्यवस्थापक द्रव्यानुयोगको माना गया है । आधुनिक भाषाप्रयोगकी शैलीमें करणानुयोगको उपयोगितावाद और द्रव्यानुयोगको अस्तित्ववाद (वास्तविकतावाद) कहना उचित जान पड़ता है। यद्यपि जैन संस्कृतिके शास्त्रीय व्यवहारमें करणानुयोगको आध्यात्मिक पद्धति और द्रव्यानुयोगको दार्शनिक पद्धति इस प्रकार दोनोंको अलग-अलग पद्धतिके रूप में विभक्त किया गया है। परन्तु मैं उपयोगितावाद और अस्तित्ववाद दोनोंको दार्शनिक पद्धतिसे बाह्य नहीं करना चाहता हैं क्योंकि मैं समझता हैं कि भारतवर्षके सांख्य, वेदान्त, मीमांसा, योग, न्याय और वैशेषिक आदि सभी वैदिक तथा जैन, बौद्ध और चार्वाक आदि सभी अवैदिक दर्शनोंका मूलतः विकास उपयोगितावादके आधारपर ही हुआ है, इसलिये मेरी मान्यताके अनुसार करणानुयोगको भी दार्शनिक पद्धतिसे बाह्य नहीं किया जा सकता है ।
जगत क्या और कैसा है ? जगतमें कितने पदार्थोंका अस्तित्व है ? उन पदार्थोके कैसे-कैसे विपरिणाम होते है ? इत्यादि प्रश्नोंके आधारपर प्रमाणों द्वारा पदार्थोके अस्तित्व और नास्तित्वके विषयमें विचार करना अथवा पदार्थोके अस्तित्व या नास्तित्वको स्वीकार करना अस्तित्ववाद (वास्तविकतावाद) और जगत्के प्राणी दुःखी क्यों हैं ? वे सुखी कैसे हो सकते हैं ? इत्यादि प्रश्नोंके आधारपर पदार्थोंकी लोककल्याणोपयोगिताके आधारपर प्रमाणसिद्ध अथवा प्रमाणों द्वारा असिद्ध भी पदार्थोंको पदार्थ व्यवस्थामें स्थान देना उपयोगितावाद समझना चाहिये । संक्षेपमें पदार्थों के अस्तित्वके बारेमें विचार करना अस्तित्ववाद और पदार्थोंको उपयोगिताके बारेमें विचार करना उपयोगितावाद कहा जा सकता है। अस्तित्ववादके आधारपर वे सब पदार्थ मान्यताको कोटिमें पहँचते हैं जिनका अस्तित्व मात्र प्रमाणों द्वारा सिद्ध होता हो, भले ही वे पदार्थ लोककल्याणके लिये
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