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________________ ४ | दर्शन और न्याय : ३९ इस प्रकार जैनदर्शनका 'वस्तु नित्य है' यह वाक्य नयवाक्य है क्योंकि इससे वस्तुके नित्यतारूप अंशका प्रतिपादन होता है तथा सांख्य दर्शनका 'वस्तु नित्य है' यह वाक्य प्रमाणाभास है या अप्रमाण है क्योंकि इस वाक्यसे सांख्य वस्तुके नित्यतारूप अंशका प्रतिपादन करना नहीं चाहता है और चंकि वह नित्यतारूप अंशसे वस्तका पर्णरूपसे प्रतिपादन करना चाहता है. जैसा प्रतिपादन होना असंभव है. क्योंकि वस्त मात्र नित्य ही नहीं है बल्कि नित्य होनेके साथ-साथ वह अनित्य भी है। इसी प्रकार जैनदर्शनका 'वस्तु अनित्य है' यह वाक्य और बौद्ध दर्शनका 'वस्तु अनित्य है।' यह वाक्य इन दोनोंके विषयमें क्रमशः नयरूपता और अप्रमाणरूपताकी ऐसी ही व्यवस्था समझ लेना चाहिये । उपसंहार इस संपूर्ण विवेचनका सार यह है कि विश्वकी संपूर्ण अनन्तानन्त वस्तुओंमेंसे प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। प्रत्येक वस्तुके अपने-अपने इन अनन्त धर्मों से प्रत्येक धर्म अपने विरोधी धर्मके साथ ही प्रत्येक वस्तुमें रह रहा है। इसलिये प्रत्येक वस्तुको जैनदर्शनमें अनेकान्तात्मक माना गया है। इस अनेकान्तामक वस्तुका प्रतिपादन करना वचनका कार्य है। वचन भी यदि वस्तुके परस्परविरोधी दोनों धर्मोंका प्रतिपादन करने में समर्थ है तो उसे प्रमाणरूप कहा जायगा और यदि वह परस्परविरोधी दोनों धर्मोंमेंसे एक-एक धर्मका प्रतिपादन करने में समर्थ है तो वह नयरूप माना जायगा । इसके विपरीत उक्त प्रकारके अनेकान्तात्मकरूपसे प्रसिद्ध वस्तुके किसी एक धर्मके रूपमें एकान्तात्मक मानकर उसे जिस वचन द्वारा प्रतिपादित किया जायगा वह वचन अप्रमाणरूप माना जायगा, क्योंकि वस्तुका जैसा अनेकान्तात्मक स्वरूप है वैसा उस वचनसे प्रतिपादित नहीं होगा और जैसा एकान्तात्मक स्वरूप वस्तुका नहीं है वैसा उससे प्रतिपादित होगा। जिस वचनसे वस्तुका जो धर्म प्रतिपादित होना चाहिये, यदि उससे विपरीत धर्मका जहाँ प्रतिपादन किया जायगा वहाँ वह वचन नयाभासरूप माना जायगा। इसी तरह वचनसे उक्त प्रकारका जैसा प्रतिपादन वक्ता या लेखक द्वारा किया जायगा वैसा ही उस वचनसे श्रोता या पाठकको वस्तुके विषयमें बोध होगा। इस प्रकार वह बोध भी यथायोग्य प्रमाणरूप, नयरूप, अप्रमाणरूप या नयाभासरूप ही माना जायगा। इस लेख में हमने उत्पत्ति और विकासके आधारपर जैनदर्शनके नयवादको स्पष्ट करनेका प्रयत्न किया है । जैनागममें नयोंका विस्तार करते हए द्रव्याथिकनय और पर्यायाथिकनय तथा निश्चयनय और व्यवहारनय इस प्रकार दो तरहसे नय-भेदोंका विवेचन पाया जाता है। इनमेंसे नयोंके द्रव्याथिक और पर्यायाथिक भेद वस्तुतत्त्वकी स्वरूपव्यवस्थाके आधारपर तथा निश्चयनय और व्यवहारनय ये दो भेद आध्यात्मिक दृष्टिकोणके आधारपर जैनागम द्वारा मान्य किये गये हैं । इनके अलावा जैनागममें और भी अर्थनय तथा शब्दनयके रूपमें नयोंका विवेचन पाया जाता है तथा अर्थनयके नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र व शब्दनयके शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूत भेद भी जैनागममें देखनेको मिलते हैं। एवं सभी प्रकारके नयोंके उपभेद भी वहाँपर देखनेको मिलते हैं । इन सबका विस्तारसे विवेचन करनेकी वर्तमानमें अतीव आवश्यकता हो गयी है। कारण कि इस समय जैनसमाजमें जो तात्त्विक विवाद खड़े हो रहे हैं उनका कारण नयोंकी स्थितिको ठीक तरह नहीं समझ पाना ही है। लेकिन चूंकि लेख काफी विस्तृत हो गया है अतः स्वतन्त्र लेख द्वारा ही इन सबका विवेचन करना उचित होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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