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________________ ३८ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ करनेके लिये 'यह घट है' इस वाक्यके साथ ‘पटादि नहीं है' इस वाक्यका भी प्रयोग करना होगा, तब जाकर ही वचनके श्रोता या पाठकको वह लक्षित वस्तु घटरूपताको लिए हुए है व पटादिरूपताको लिये हुए नहीं हैऐसा पूर्णता लिये हुए वस्तुका बोध होगा । इस तरह 'यह घट है' यह वाक्य और 'पटादि नहीं है' यह वाक्य दोनों ही 'यह घट है पटादि नहीं है' इस महावाक्यके अवयव हो जानेपर वस्तुका सही रूपमें प्रतिपादन करते हुए श्रोता या पाठकको उस वस्तुतत्वका सही रूपमें बोध करा सकते हैं। __ यहाँ पर समझनेकी बात यह है कि 'यह घट है पटादि नहीं है' यह महावाक्य वस्तुत्त्वका पूर्णरूपसे प्रतिपादक होने व श्रोता या पाठकको उस वस्तुतत्त्वका पूर्णताके साथ ज्ञान कराने में समर्थ होनेके कारण प्रमाणवाक्य है तथा इस महावाक्यके अवयभूत 'यह घट है' और 'पटादि नहीं है। ये दोनों वाक्य नयवाक्य है व इन दोनों वाक्योंके समूहरूप 'यह घट है पटादि नहीं है' इस महावाक्यके जरिये श्रोता या पाठकको होनेवाला वस्तुतत्त्वका पूर्णता लिये हुए ज्ञान प्रमाणज्ञान है व इस महावाक्यके अवयभूत 'यह घट है' और 'पटादि नहीं है' इन दोनों वाक्योंसे श्रोता या पाठकको होनेवाला वस्तुतत्त्वके एक-एक अंशका ज्ञान नयज्ञान है। यही बात 'वस्तु नित्य है और नित्य नहीं है अर्थात् अनित्य है' इस महावाक्य तथा इसके अवयवभूत 'वस्तु नित्य है' और वस्तु नित्य नहीं है अर्थात् अनित्य है' इन वाक्योंके विषयमें भी जान लेना चाहिये । अब देखना यह है कि अप्रमाणज्ञानमें नयव्यवस्था क्यों नहीं होती ? तो इसपर ध्यान देनेसे मालूम पड़ता है कि जितनी भी एकान्तवादकी मान्यतायें हैं उनमें जिस एक धर्मको जिस वस्तुमें स्वीकार किया गया है उस वस्तु में उस धर्मके साथ उस धर्मके विरोधी धर्मको जैसा जैनदर्शनमें स्वीकार किया गया है वैसा उन मान्यताओंमें स्वीकार नहीं किया गया है । जैसे जैनदर्शन कहता है कि जब वस्तुमें पूर्वोक्त प्रकारसे आकृति, प्रकृति और विकृतिके रूपमें क्रमशः द्रव्यरूपता, गुणरूपता और पर्यायरूपता पायी जाती है तो फिर यह मानना भी आवश्यक हो जाता है कि वस्तूकी द्रव्यरूपता और गुणरूपता तो शाश्वत होनेसे नित्य है तथा उसकी पर्यायरूपता अशाश्वत होनेसे अनित्य है । लेकिन वस्तुतत्त्वकी यह स्थिति सही होते हुए भी जो दर्शन वस्तुको नित्य मानता है वह उसे अनित्य माननेके लिये तैयार नहीं है और जो दर्शन वस्तुको अनित्य मानता है वह उसे नित्य माननेके लिये तैयार नहीं है इसलिये ये दोनों ही एकान्तवादी दर्शन अपने-अपने अभिप्रायके अनुसार 'वस्तू नित्य है' या 'वस्तु अनित्य है' इन दो वाक्योंमेंसे एक ही वाक्यसे वस्तुका पूर्णरूपसे प्रतिपादन कर देना चाहते हैं। लेकिन वास्तवमें बात यह है कि जैसा नित्यरूप या अनित्यरूप वस्तुको वे मानते हैं वैसा उस वस्तुका पूर्णरूप न होकर अंशमात्र सिद्ध होता है । अतः 'वस्तु नित्य है' और 'वस्तु अनित्य है' ये दोनों वाक्य पृथक्-पृथक् रहकर चूंकि वस्तुका पूर्णरूपसे प्रतिपादन कर नहीं सकते हैं, इसलिये तो इन्हें प्रमाणवाक्य नहीं कहा जा सकता है और वे एकान्तवादी दर्शन इन वाक्योंको वस्तूके अंशके प्रतिपादक माननेको तैयार नहीं है। इसलिये इन्हें नयवाक्य भी नहीं कहा जा सकता है। इस तरह ये दोनों ही बाक्य प्रमाण-वाक्य तथा नय-वाक्यकी कोटिसे निकल कर अप्रमाण या प्रमाणासभाकी कोटिमें ही गभित होते हैं । इन्हें नयाभास इसलिये नहीं कहा जा सकता है कि एक नयके विषयको दूसरे नयके विषयरूपमें स्वीकार करना या कथन करना ही नयाभासका लक्षण है जो यहाँ पर घटित नहीं होता है । तात्पर्य यह है कि 'वस्तु नित्य है' इस वाक्यका अभिप्राय यह होता है कि वस्तुकी द्रव्यरूपता या गुणरूपता नित्य है और 'वस्तु अनित्य है' इस वाक्यका अभिप्राय यह होता है कि वस्तुकी पर्यायरूपता अनित्य है । अब यदि कोई व्यक्ति वस्तुकी द्रव्यरूपता या गुणरूपताको अनित्य तथा पर्यायरूपताको नित्य मानने या कहने लग जाय तो उस हालतमें ऐसी मान्यता या ऐसा कथन ही नयाभास माना जायगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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