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________________ १८ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य उत्तर-एक ही वस्तु एक साथ भिन्न-भिन्न अनेक कार्योंमें निमित्त देखी जाती है. अतः इन्द्रिय अथवा मनका एक साथ दर्शन और ज्ञानके व्यापारमें निमित्त होना असंभव नहीं है। दूसरी बात यह है कि जब अवधिदर्शन और अवधिज्ञान दोनों ही इन्द्रिय अथवा मनकी सहायताके बिना ही उत्पन्न होते हैं तो उनके एकसाथ उत्पन्न होनेमें कौनसी बाधा रह जाती है। तीसरी बात यह है कि निमित्तोंका सद्भाव रहते हुए प्रत्येक गुणका प्रति समय कुछ न कुछ परिणमन अर्थात् व्यापार होना ही चाहिए अन्यथा उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जायगा, इसलिए भी छद्मस्थोंके दर्शन और ज्ञानके एक साथ उत्पन्न होने में कोई विरोध नहीं रह जाता है और मुख्य बात तो यह है कि जब दर्शन ज्ञानकी उत्पत्तिमें कारण होता है तथा केवलदर्शन और केवलज्ञान दोनों सर्वज्ञमें एक साथ विद्यमान रहते हैं तो दर्शन और ज्ञान ये दोनों परस्पर विरोधी भी नहीं हैं। शंका-एक तरफ तो निमित्तोंका सद्भाव रहते हुए दर्शन और ज्ञान आदि गुणोंका प्रतिसमय कुछ न कुछ व्यापार होता ही रहता है, ऐसा मान लिया गया है और दूसरी तरफ यह भी कहा गया है कि स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और श्रुतज्ञान पदार्थदर्शनके बिना ही उत्पन्न हो जाया करते हैं अर्थात् जिस कालमें ज्ञानगुणका स्मृत्यादिरूप व्यापार होता है उस कालमें दर्शनगुण व्यापारशून्य हो रहता है, तो इन दोनों परस्परविरोधी कथनोंकी संगति कैसे होगी ? । उत्तर-स्मृति आदि ज्ञान पदार्थदर्शनके बिना ही हो जाया करते हैं, यह तो ठीक है, परन्तु वहाँ दर्शन गुण व्यापारशून्य ही बना रहता है अथवा उन स्मृत्यादि ज्ञानोंमें दर्शनगुणके व्यापारका कोई उपयोग ही नहीं हैं, ऐसी बात नहीं समझनी चाहिए। तात्पर्य यह है कि स्मतिज्ञानमें धारणा ज्ञानको कारण माना गया है । परन्तु हमें धारणाजान रहते हुए भी पदार्थका सर्वदा स्मरण क्यों नहीं होता रहता है ? इसका उत्तर यह है कि धारणा जिस कालमें उबुद्धताका रूप धारण कर लेती है उस कालमें ही स्मति होती है, अन्यकालमें नहीं, और धारणाज्ञानकी यह उबुद्धता नियत आत्मप्रदेशोंका उस धारणज्ञानरूप परिणमनको छोड़कर कुछ भी नहीं है, जिसे पहले दर्शनोपयोग कह आये हैं। इस कथनसे यह सिद्ध होता हैं कि स्मृति आदि ज्ञान भी दर्शनोपयोग अर्थात् दर्शनगुणके व्यापारके अभावमें उत्पन्न नहीं हो सकते हैं अर्थात जिस प्रकार अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चारों मतिज्ञान तथा अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये सब दर्शनगुणका व्यापार रहते हुए ही उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान ये चारों मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान ये सब भी दर्शनगुणका व्यापार रहते हए ही उत्पन्न होते हैं। लेकिन अवग्रहादि ज्ञानोंमें आत्माके दर्शनगुणका अर्थाकाररूप व्यापार कारण होने की वजहसे जहाँ उन्हें प्रत्यक्ष मान लिया गया है। वहाँ स्मृति आदि ज्ञानोंमें आत्माके दर्शनगुणका अर्थका अभाव रहते हुए धारणा आदि ज्ञानका रूप व्यापार कारण होनेकी वजहसे उन्हें परोक्ष माना गया है । स्मृतिको धारणाज्ञानपूर्वक, प्रत्यभिज्ञानको स्मृति और प्रत्यक्षज्ञानपूर्वक, तर्कको प्रत्यभिज्ञानपूर्वक, अनुमानको तर्कज्ञानपूर्वक और श्रुतज्ञानको शब्दश्रवण या अंगुल्यादिदर्शन तथा इनमें संकेत ग्रहण रूप मतिज्ञानपूर्वक माननेका अभिप्राय यही है कि जिस कालमें आत्माके दर्शनगुणका उस-उस ज्ञानरूप व्यापार होता है उस कालमें वेचे ज्ञान उत्पन्न हो जाया करते हैं । शंका-ईहाज्ञान अवग्रहज्ञानपूर्वक होता है, अवायज्ञान ईहाज्ञानपूर्वक होता है, धारणाज्ञान अवग्रह या अवायपूर्वक होता है और मनःपर्ययज्ञान मानसिक ईहाज्ञानपूर्वक हुआ करता है, इस प्रकार ज्ञानपूर्वक होनेकी वजहसे इन ज्ञानोंको भी परोक्षज्ञान मानना उचित है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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