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________________ ४ / दर्शन और न्याय १७ उत्पत्ति एक साथ इसलिए नहीं होती है कि दोनों पर्यायोंकी उत्पत्तिमें अलग-अलग निमित्तसामग्री अपेक्षित रहा करती है और यह युक्ति संगत भी है क्योंकि उत्तरपर्यायकी उत्पत्तिकी जो निमित्तसामग्री है वह तो पूर्वपर्यायके विनाश में ही निमित्त हो सकती है, उत्पत्तिमें नहीं । इस कथन से यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि उपादान और निमित्त दोनों तरहके कारणोंका कार्योत्पत्तिके समय में सद्भाव रहने से ही कार्य उत्पन्न हो सकता है, अन्यथा नहीं, इसलिये जिन ( अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा, अवधि, मन:पर्यय और केवल ) ज्ञानोंकी उत्पत्तिमें दर्शन कारण है उनकी उत्पत्तिके समय में अपने-अपने अनुकूल दर्शनका सद्भाव रहना ही चाहिए। शंका- वर्शन और ज्ञानमें कार्यकारणभाव वास्तविक नहीं है, बात सिर्फ इतनी है कि छद्यस्थोंके दर्शन और ज्ञानकी उत्पत्तिमें जो स्वाभाविक क्रमपना राया जाता है उसकी अपेक्षासे इन दोनोंमें कार्यकारणभावका व्यवहार मात्र किया जाता है ? उत्तर- हम पहले कह आये है कि पदार्थके प्रत्यक्षमें पदार्थका दर्शन कारण होता है, आगम में भी दर्शनको ज्ञानमें कारण स्वीकार किया गया है। इसके विपरीत भी यदि दर्शनको ज्ञानमें कारण नहीं माना जायगा, तो फिर आत्मामें ज्ञानगुणसे पृथक् दर्शनगुणका अस्तित्व मानना व्यर्थ हो जायगा, ज्ञानगुणकी ही पूर्व पर्यायका नाम दर्शन और उत्तरपर्यायका नाम ज्ञान मान लेना पर्याप्त होगा। लेकिन जब आत्मामें ज्ञानगुणसे पृथक् दर्शनगुणका अस्तित्व स्वीकार किया गया है और सर्वज्ञमें भी केवलज्ञान के समसमय में केवलदर्शनका सद्भाव भी जब कारणरूप से स्वीकार किया गया है, तो इससे यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती हैं। कि दर्शन और ज्ञानमें कार्यकारणभाव वास्तविक है, उपचारसे नहीं । शंका- "यदि छद्मस्थों ( अल्पज्ञों ) के दर्शन और ज्ञानका एकसाथ सद्भाव मान लिया जाता है, तो "छद्मस्थोंके एक साथ दो उपयोग नहीं होते हैं" इस आगमवाक्यकी संगति कैसे होगी ? उत्तर- उपयोग, परिणमन पर्याय, व्यापार या क्रिया ये सब एकार्थबोधक शब्द हैं और यह स्वतःसिद्ध नियम है कि एक गुणके दो परिणमन एक कालमें नहीं होते हैं, बस, इसी आधारपर आगममें यह बात बतलायी गयी है कि छद्यस्थोंके एक साथ दो उपयोग नहीं होते हैं । लेकिन यदि दर्शनगुण और ज्ञानगुण दोनोंका छद्यस्थोंके एकसाथ व्यापार होना अशक्य है तो फिर उनके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र अथवा मिध्यादर्शन, मिध्याज्ञान और मिथ्याचारित्र आदि गुणोंका भी एक साथ व्यापार मानना अयुक्त हो जायगा । यहाँपर इतना विशेष समझ लेना चाहिए कि जिस प्रकार सर्वज्ञकी तरह छयस्थोंके नाना गुणोंके व्यापारोंका एक कालमें सद्‌भाव मानना युक्त है उसी प्रकार छद्मस्थोंकी तरह सर्वज्ञके एक गुणके दो व्यापारों का अभाव मानना भी युक्त है। इसलिये सर्वशको जो सम्पूर्ण पदार्थोंका युगपत् ज्ञान होता रहता है वह भी ज्ञानगुणका एक व्यापार रूप ही होता है। अतः उक्त आगमवाक्यको नियामक न मानकर स्वरूप का प्रतिपादक मात्र समझना चाहिए । शंका छ स्थोंके इन्द्रिय अथवा मनकी सहायता से सहायतासे ही ज्ञान होता है, इसलिए जब इन्द्रिय अथवा मन नहीं हो सकते हैं और जब वे ज्ञानम कारण होते हैं तब दर्शनमें और ज्ञानका एक साथ सद्भाव मानना अयक्त है ? ४-३ Jain Education International दर्शन होता है और इन्द्रिय अथवा मनकी दर्शन में कारण होते है तब वे ज्ञानमें कारण कारण नहीं हो सकते हैं, अतः उनके दर्शन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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