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________________ १८२ : सरस्वती-वरदपुत्र ६० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ मोहनीयकर्मकी अनन्तानुबन्धी कषायरूप क्रोध, मान, माया और लोभरूप चार इस तरह सात प्रकृतियों के यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशममें कारण होती है। इस तरह उक्त व्यवहारधर्मरूप दया भव्यजीवमें कर्मोंके संवर और निर्जरणमें कारण सिद्ध होती है। इतनी बात अवश्य है कि भव्यजीवकी उस व्यवहारधर्मरूप दयामें जितना पुण्यमय दयारूप प्रवृत्तिका अंश विद्यमान रहता है वह तो कर्मोके आस्रव और बन्धका ही कारण होता है तथा उस व्यवहारधर्मरूप दयाका संकल्पीपापमय अदयारूप प्रवृत्तिसे होनेवाली सर्वथा निवृत्तिका अंश कर्मोंके संवर और निर्जरणका कारण होता है । द्रव्यसंग्रह ग्रन्थकी गाथा ४५ में जो व्यवहारचारित्रका लक्षण निर्धारित किया गया है उसके आधारपर व्यवहारधर्मरूप दयाका स्वरूप स्पष्ट रूपसे समझमें आ जाता है । वह गाथा निम्न प्रकार है असुहादो विणि वित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं । वदसमिदिगुत्ति रूवं ववहारणया दु जिणभणियं ।।४५)! अर्थ-अशुभसे निवृत्तिपूर्वक होनेवाली शुभमें प्रवृत्तिको जिन भगवानने ब्यवहारचारित्र कहा है । ऐसा व्यवहारचारित्र व्रत, समिति और गुप्तिरूप होता है । इस गाथामें व्रत, समिति और गुप्तिको व्यवहारचारित्र कहनेमें हेतु यह है कि इनमें अशुभसे निवृत्ति और शुभमें प्रवृत्तिका रूप पाया जाता है। इस तरह इस गाथासे निर्णीत हो जाता है कि जीव पुण्यरूप जीवदयाको जब तक पापरूप अदयाके साथ करता है तब तक तो उस दयाका अन्तर्भाव पुण्यरूप दयामें होता है और वह जीव उक्त पुण्यरूप जीवदयाको जब पापरूप अदयासे निवृत्तिपूर्वक करने लग जाता है तब वह पुण्यभूत दया व्यवहारधर्मका रूप धारण कर लेती है, क्योंकि इस दयासे जहाँ एक ओर पुण्य-प्रवृत्तिरूपताके आधारपर कर्मोका आस्रव और बन्ध होता है वहाँ दूसरी ओर उस दयासे पापप्रवृत्तिसे निवृत्तिरूपताके आधारपर भव्य जीवमें कर्मोका संवर और निर्जरण भी हुआ करता है। व्यवहारधर्मरूप दयासे कर्मोंका संवर और निर्जरण होता है इसकी पुष्टि आचार्य वीरसेनके द्वारा जयधवलाके मंगलाचरणकी व्याख्यामें निर्दिष्ट निम्न वचनसे होती है "सुह-सुद्धपरिणामेहिं कम्मक्खयाभावे तक्खयाणुववत्तीदो" अर्थ-शुभ और शुद्धके रूपमें मिश्रित परिणामोंसे यदि कर्मक्षय नहीं होता हो तो कर्मक्षयका होना असंभव हो जायेगा। आचार्य वीरसेनके वचनमें "सुह-सुद्धपरिणामेहि" पदका ग्राह्य अर्थ आचार्य वीरसेनके उक्त वचनके "सुह-सुद्धपरिणामेहिं" पदमें 'सुह' और 'सुद्ध' दो शब्द विद्यमान हैं। 'सुह' शब्दका अर्थ भव्य जीवकी क्रियावती शक्तिके प्रवृत्तिरूप शुभ परिणमनके रूपमें और सुद्ध' शब्दका अर्थ उस भव्य जीवकी क्रियावती शक्तिके अशुभसे निवृत्तिरूप शुद्ध परिणमनके रूप में ग्रहण करना ही युक्त है। 'सह' शब्दका अर्थ जीवको भाववती शक्तिके पुण्यकर्मके उदय होनेवाले शुभ परिणामके रूपमें और 'सुद्ध' शब्दका अर्थ उस जीवकी भाववती शक्तिके मोहनीयकर्म के यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशममें होनेवाले शुद्ध परिणमनके रूपमें ग्रहण करना युक्त नहीं है। आगे इसी बातको स्पष्ट किया जाता है जीवकी क्रियावती शक्तिके मानसिक, वाचनिक और कायिक शुभ और अशुभ प्रवृत्तिरूप परिणमन कर्मोके आस्रव और बन्धके कारण होते हैं और उसी क्रियावती शक्तिके मानसिक, वाचनिक और कायिक उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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