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________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १८१ अतिरिक्त वीतरागी देवकी आराधना, वीतरागताके पोषक शास्त्रोंका पठन-पाठन, चिन्तन और मनन व वीतरागताके मार्गपर आरूढ़ गुरुओंकी सेवा-भक्ति तथा स्वावलम्बन शक्तिको जागत करनेवाले व्रताचरण और तपश्चरण आदि भी पुण्यक्रियाओंमें अन्तर्भूत होते हैं। यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि उक्त आरम्भी पाप भी यदि आसक्ति आदिके वशीभूत होकर किये जाते है तथा पुण्य भी यदि अहंकार आदिके वशीभूत होकर किये जाते हैं तो उन्हें संकल्पी पाप ही जानना चाहिए। संसारी जोवकी क्रियावती शक्तिके दया और अदया रूप परिणमनोंका विवेचन ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि जीवकी भाववती शक्तिका चारित्रमोहनीय कर्मके भेद अनन्तानुबन्धी आदि चारों कषायोंकी क्रोध प्रकृतियोंके उदयमें अदयारूप विभाव परिणमन होता है व उन्हीं क्रोधप्रकृतियोंके यथास्थान यथासम्भव रूपमें होनेवाले उपशम, क्षय या क्षयोपशममें दयारूप स्वभाव परिणमन होता है। यहाँ जीवकी क्रियावती शक्तिके मानसिक, वाचनिक और कायिक परिणमनोंके विषयमें यह बतलाना है कि जीव द्वारा परहितकी भावनासे की जानेवाली क्रियायें पुण्यके रूपमें दया कहलाती हैं और जीव द्वारा परके अहितकी भावनासे की जानेवाली क्रियायें संकल्पी पापके रूपमें अदया कहलाती है। इनके अतिरिक्त जीवकी जिन क्रियाओंमें परके अहितकी भावना प्रेरक न होकर केवल स्वहितकी भावना प्रेरक हो, परन्तु जिनसे परका अहित होना निश्चित हो वे क्रियायें आरम्भी पापके रूपमें अदया कहलाती हैं। जैसे एक व्यक्ति द्वारा अनीतिपूर्वक दूसरे व्यक्तिपर आक्रमण करना संकल्पी पापरूप अदया है। परन्तु उस दुसरे व्यक्ति द्वारा आत्मरक्षाके लिये उस आक्रमण व्यक्तिपर प्रत्याक्रमण करना आरम्भी पापरूप अदया है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि जोवकी पुण्यमय क्रिया संकल्पी पापमय क्रियाके साथ भी सम्भव है और आरम्भी पापमय क्रियाके साथ भी सम्भव है, परन्तु संकल्पी और आरम्भी दोनों पापरूप क्रियाओंमें जीवकी प्रवृत्ति एक साथ नहीं हो सकती है क्योंकि संकल्पी पापरूप क्रियाओंके साथ जो आरम्भी पापरूप क्रियायें देखने में आती है उन्हें वास्तवमें संकल्पी पापरूप क्रियायें ही मानना युक्तिसंगत है । इस तरह संकल्पी पापरूप क्रियाओंके सर्वथा त्यागपूर्वक जो आरम्भी पापरूप क्रियायें की जाती है उन्हें ही वास्तविक आरम्भी पापरूप क्रियायें समझना चाहिए। व्यवहार धर्मरूप दयाका विश्लेषण और कार्य ऊपर बतलाया जा चका है कि जीव द्वारा मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पीपापमय अदयारूप अशुभ क्रियाओंके साथ परहितको भावनासे की जानेवाली मानसिक, वाचनिक और कायिक शुभ क्रियायें पुण्यके रूपमें दया कहलाती हैं और वे कर्मों के आस्रव और बन्धका कारण होती है। परन्तु भव्य और अभव्य दोनों प्रकारके जीवों द्वारा कम-से-कम मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पी पापमय अदयारूप अशुभ क्रियाओंसे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्तिके रूपमें होनेवाली सर्वथा निवृत्तिपूर्वक जो मानसिक, वाचनिक और कायिक दयाके रूपमें पुण्यमय शुभ क्रियायें की जाने लगती हैं वे क्रियायें ही व्यवहारधर्मरूप दया कहलाती है । इसमें हेतु यह है कि उक्त संकल्पी पापमय अदयारूप अशुभ क्रियाओंसे निवृत्तिपूर्वक की जानेवाली पुण्यभूत दया भव्य और अभव्य दोनों प्रकारके जीवोंमें क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियोंके विकासका कारण होती है तथा भव्य जीवमें तो वह इन लब्धियों के विकासके साथ आत्मोन्मुखतारूप करणलब्धिके विकासका भी कारण होती है जो करणलब्धि प्रथमतः मोहनीयकर्मके भेद दर्शनमोहनीय कर्मकी यथासंभव रूपमें विद्यमान मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यकप्रकृतिरूप तीन व मोहनीयकर्मके भेद चारित्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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