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________________ १६४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ रहता है । अतः सभी पुद्गलाणु इस अपेक्षासे २५४२% ५० प्रकारके हो जाते हैं । इन ५० प्रकारके पुद्गलाणुओंमेंसे प्रत्येक पुद्गलाणुमें स्निग्ध और रूक्ष इन दो स्पर्शोमेंसे कोई एक स्पर्श रहता है । इस प्रकार सभी पुद्गलाणु इस अपेक्षासे ५०x२ = १०० प्रकारके हो जाते हैं। इस १०० प्रकारके पुद्गलाणुओंमेंसे प्रत्येक पुद्गलाणुमें शीत और उष्ण इन दो स्पर्शोंमेंसे कोई एक स्पर्श रहता है । अतः सभी पुद्गलाणु इस अपेक्षासे १०० x २ = २०० प्रकारके हो जाते हैं। यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि आगममें स्पर्शके स्निग्ध, रूक्ष, शीत, उष्ण, हल्का, भारी, कठोर और कोमल इस प्रकार आठ भेद बतलाये गये हैं। किन्तु सभी पुद्गलाणु यतः एकप्रदेशात्मक ही होते हैं । अतः उनमें स्निग्ध, रूक्ष, शीत और उष्ण ये चार स्पर्श रहते हुए भी हल्का, भारी, कठोर, और कोमल इन चार स्पर्शीका सद्भाव सम्भव नहीं है, क्योंकि हल्का, भारी, कठोर और कोमल ये चार स्पर्श नानाप्रदेशात्मक पुद्गल वस्तुमें ही सम्भव होते हैं । इतना अवश्य है कि प्रत्येक पुद्गलाणुमें जो स्निग्ध और रूक्ष दो स्पर्शोंमेंसे कोई एक स्पर्श पाया जाता है, उसके आधारपर एक पुद्गलाणु दूसरे पुद्गलाणुके साथ बन्धको भी प्राप्त होता रहता है । जैसा कि तत्त्वार्थसूत्रके “स्निग्धरूक्षत्वाद्बन्धः" (५-३३) सूत्रसे स्पष्ट है। इस प्रकार दो आदि संख्यात, असंख्यात और अनन्त पुद्गलपरमाणु जब परस्पर बन्धको प्राप्त हो जाते हैं तब उनमें हल्का, भारी, कठोर और कोमल इन चार स्पर्शोके सद्भावकी सम्भावना हो जाती है। यही कारण है कि तत्त्वार्थसूत्रके "अणवः स्कन्धाश्च" (५-२५) सूत्र में पुद्गलके अणु और स्कन्ध दो भेद बतलाये गये हैं । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि हल्का और भारी तथा कोमल और कठोर परस्परसापेक्ष होकर ही उस-उस स्पर्शरूपताको प्राप्त होते हैं। पुद्गलोंमें पृथ्वी, जल अग्नि और वायु ये चार स्कन्ध तो प्रत्यक्ष अनुभवमें आते हैं। इनका निर्माण भी पुद्गलाणुओंके परस्पर बन्धके आधारपर ही समझना चाहिए। गोम्मटसार जीवकाण्डकी गाथा ६०२ में जो बादर-बादर, बादर, बादर-सूक्ष्म, सूक्ष्म-बादर, सूक्ष्म और सूक्ष्म-सूक्ष्म ये ६ भेद पुद्गलोंके बतलाये गये हैं, उनमेंसे पृथ्वी, काष्ठ, पाषाण आदि बादर-बादर स्कन्ध है । जल, तेल आदि बादर स्कन्ध हैं। छाया, आतप चाँदनी आदि बादर-सूक्ष्म स्कन्ध है। शब्द, गन्ध, रस आदि सूक्ष्म-स्थल स्कन्ध हैं। ज्ञानावरणादिकर्म सूक्ष्म स्कन्ध है और अखण्ड पुद्गल परमाणु सूक्ष्म-सूक्ष्मरूपमें अणु ही है। गोम्मटसार जीवकाण्डकी गाथा ५९३-९४ में पुद्गलोंके वर्गणाओंके रूपमें २३ भेद भी बतलाये गये हैं। इनमेंसे वर्ग सूक्ष्म पुद्गलाणुरूप है और एकजातीय वर्गोके समूहका नाम वर्गणा है। इस तरह २३ वर्गणाओंकी व्यवस्था आगमके अनुसार ज्ञातव्य है। यहाँ आवश्यक जानकर आहारवर्गणा, तैजसवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा और कार्मणवर्गणाके विषयमें स्पष्टीकरण किया जाता है। आहारवर्गणाके तीन भेद है । एक आहारवर्गणा वह है जिससे औदारिक शरीरकी रचना होती है। दूसरी आहारवर्गणा वह है जिससे वैक्रियिक शरीरका निर्माण होता है और तीसरी आहारवर्गणा वह है जो आहारकशरोररूप परिणत होती है। इनके भी यथासम्भव अनेक प्रकार आगमके आधारपर जान लेना चाहिए। जैसे तिर्यन्चोंकी नाना जातियाँ देखने में आती हैं तो उनके शरीरका निर्माण भी भिन्न-भिन्न प्रकारकी औदारिक वर्गणाओंसे होता है । तैजसवर्गणासे तैजस शरीरका निर्माण होता है । भाषावणासे शब्दकी रचना होती है व मनोवर्गणासे द्रव्यमनका निर्माण होता है । इसीप्रकार कार्मणवर्गणायें मूलमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तरायके भेदसे आठ प्रकारको है व इनके बन्धको अपेक्षा १४६ उत्तरभेद हैं। इनसे ही पृथक्-पृथक् उस-उस कर्मप्रकृतिका निर्माण होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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