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________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : १६३ .. १-मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके साथ श्रुतज्ञानका सद्भाव रहनेके कारण मतिज्ञानी, अवविज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीव ता मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानसे ज्ञात पदार्थका उस श्रुतज्ञानके बलसे विश्लेषण भी करते हैं, परन्तु केवलज्ञानके साथ श्रुतज्ञानका अभाव रहनेसे केवलज्ञानी जीव केवलज्ञानसे ज्ञात पदार्थका कदापि विश्लेषण नहीं करते हैं। २-मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके साथ श्रुतज्ञानका सद्भाव रहनेके कारण मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीव श्रुतज्ञानके बलसे एक ही पदार्थमें गुण-गुणीभावका भेद करके गुण और धाराधेयभावका विश्लेषण करते हैं. तथा एक ही पदार्थमें भेदके बलपर उपादानोपादेयभावरूप कार्यकारणभावका भी विश्लेषण करते हैं। इतना ही नहीं, तादाम्यसम्बन्धाश्रित अन्य सभी प्रकारके सम्बन्धोंका भी विश्लेषण करते है, परन्तु केवलज्ञानके साथ श्रुतज्ञानका अभाव रहनेके कारण केवलज्ञानी जीव एक ही पदार्थमें भेदकी अवास्तविकताके कारण उक्त सभी प्रकारके सम्बन्धोंका विश्लेषण नहीं करते हैं । • ३-मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके साथ श्रुतज्ञानका सद्भाव रहनेके कारण मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीव उस श्रुतज्ञानके बलसे नाना पदार्थों में भी आधाराधेयभाव और निमित्तनैमित्तिकभावरूप कार्य-कारणभाव आदि संयोगसम्बन्धाश्रित सभी प्रकारके सम्बन्धोंका विश्लेषण करते हैं। परन्तु केवलज्ञानके साथ श्रुतज्ञानका अभाव रहनेके कारण केवलज्ञानी जीव नाना पदार्थों में संयोगसम्बन्धाश्रित उक्त सभी प्रकारके सम्बन्धोंका कदापि विश्लेषण नहीं करते हैं। ४-मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके साथ श्रतज्ञानका सद्भाव रहनेके कारण मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीव उस श्रुतज्ञानके बलसे अर्थ और शब्दमें वाच्य-वाचकभाव व पदार्थ व ज्ञानमें ज्ञेय-ज्ञायकभाव आदि विविध प्रकारके सम्बन्धोंका भी विश्लेषण करते हैं, परन्तु केवलज्ञानके साथ श्रुतज्ञानका अभाव रहनेके कारण केवलज्ञानी जीव इस प्रकारके सम्बन्धोंका विश्लेषण नहीं करते हैं। इस विवेचनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि जहाँ मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीवोंका कार्य मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके द्वारा पदार्थों को जाननेका तथा श्रुतज्ञानके द्वारा विविध प्रकारके सम्बन्धोंका विश्लेषण करना है वहाँ केवलज्ञानी जीवका कार्य केवलज्ञानके द्वारा पदार्थोंको जानना तो है, परन्तु श्रुतज्ञानका अभाव होनेसे उक्त किसी भी प्रकारके सम्बन्धका विश्लेषण करना उसका कार्य नहीं है। पुद्गलोंका आवश्यक विवेचन जिस प्रकार कालद्रव्य अणुरूप है उसी प्रकार पुद्गल द्रव्य भी अणुरूप है । दोनोंमें विशेषता यह है कि जहां कालद्रव्य असंख्यात है और निष्क्रिय है वहाँ पुदगल द्रव्य अनन्त हैं और क्रियाशील भी हैं। काल और पुद्गल दोनों द्रव्योंमें एक विशेषता यह भी है कि जहाँ सभी कालाणु स्वभावदृष्टिसे समान हैं वहाँ सभी पुद्गलाणु स्वभावदृष्टिसे समान नहीं हैं । आगे इसी बातको स्पष्ट किया जाता है प्रत्येक पृद्गलाणु में स्वभावतः काला, पीला, नीला, लाल और सफेद इन पाँच वर्णो मेंसे कोई एक वर्ण रहता है । अतः सभी पुद्गलाणु वर्णकी अपेक्षा पाँच प्रकारके हो जाते हैं । वर्णकी अपेक्षा पाँच प्रकारके सभी पुद्गलाणुओंमेंसे प्रत्येक पुद्गलाणुमें खट्टा, मीठा, कडुवा, चरपरा और कषायला इन पाँच रसोंमें कोई एक रस रहता है। अतः सभी पुदगलाणु पाँच वर्षों और पांच रसोंकी अपेक्षा ५४५%3D२५ प्रकारके हो जाते हैं। इन २५ प्रकारके पुद्गलाणुओंमेंसे प्रत्येक पुद्गलाणमें सुगन्ध, और दुर्गन्ध दो गन्धोंमेंसे कोई एक गन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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